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शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

कैसे जीवन का आनन्द ले सकते है हम..?



 भूमिका :---


जीवन हमारा बनाया हुआ नहीं है। जीवन परमात्मा ने
बनाया है और परमात्मा ने जीवन का स्वभाव बनाया
है, वह है आनन्द। जीवन दुःख के लिए नहीं बनाया है। इन्सान
अपने मूल स्वभाव के अनुरूप चले, तो ही ठीक है।
आप कहेंगे कि यह कौन-सा विषय हो गया है। यह तो सभी
जानते हैं और सब इसके लिए प्रयास भी करते हैं। यह तो कहने की बात हो गई, लेकिन हम चारों तरफ़ निगाह करें, तो दिखाई देगा कि हर कोई दुःखों को खोज रहा है। उसके सारे कृत्य ऐसे हो रहे हैं, जो दुःखों को बढ़ावा दे रहे हैं। इसलिए ऊपरी तौर पर सब जानते हैं कि जीवन का स्वभाव आनन्द है, पर भीतर स्मृति में यह बात लगातर रहती नहीं है। यहाँ तक कि लोग आनन्द को पाप भी बताते हैं। उन्होंने दुःख को ही जीवन का सत्य समझ लिया है। वे लोगों को कष्ट उठाने की शिक्षा व प्रेरणा देते हैं । कहते हैं कि इस जन्म में जितने ज़्यादा कष्ट उठाओगे, अपने शरीर को जितनी ज्यादा तकलीफ़ दोगे, उतना ही अगले जन्म में सुख मिलेगा। आखिर चाहिए उन्हें भी सुख ही, लेकिन एक गलत धारणा उन्होंने पाल ली। पूर्व में किसी बुद्ध पुरुष के साथ ऐसा हुआ होगा कि कितनी भी कष्टकारी अवस्था में आनन्द को महसूस कर पा रहा होगा। वह अपने मूल स्वभाव में इतना चला गया होगा कि उसे कोई बाहरी कष्ट उस आनन्द अवस्था से बाहर नहीं कर पा रहा होगा।
कभी उसने जानकर कष्टों को नहीं बुलाया होगा। उसने यह शिक्षा नहीं दी होगी कि सारी ऊर्जा को कष्टों को खोजने में लगा दो। उसने

अपना आनंद मत भूलो :---

यह शिक्षा दी होगी कि कितनी भी कष्टकारी स्थिति आ जाए, अपनी आनन्द अवस्था को मत भूलो, लेकिन कुछ लोगों ने इस बात को पूरा उलट दिया है। वे कहते हैं जितने ज़्यादा कष्ट उठा सकते हो, तब तक कष्ट ढूँढ़ते रहो और उठाते रहो। परमात्मा द्वारा दी गई इस पुण्य काया का इससे बड़ा निरादर और कोई नहीं हो सकता। 
 ये जो दुःख सृजन करने वाले लोग हैं, वे बड़े ख़तरनाक हैं। इन्सान के शरीर की हत्या तो छोटी बात है, लेकिन इन्सान के मृल स्वभाव की हत्या बड़ा ख़तरनाक अपराध है। . 

कोई मनुष्य तरह-तरह केकष्ट भोगकर अपने आपको दूसरों से अलग तो कर सकता है। अपने आपको विशिष्ट बना सकता है। दूसरों से सम्मान प्राप्त कर सकता है, लेकिन वह दूसरों के जीवन में आनन्द नहीं भर सकता है, क्‍योंकि वह तो कष्ट की शिक्षा दे रहा है। उसकी सोच में कष्ट ही कष्ट है। वह आनन्द की बात भी करेगा, तो झूठी होगी, क्योंकि उसने न आनन्द का मार्ग जाना है, न उसे महसूस किया है। | 

सोच को संकुचित करती है कस्ट कि शिक्षा :---

वैसे भी कष्ट इन्सान की सोच को संकुचित करता है। कष्ट इसलिए भोगना है, क्योंकि उसको उसमें स्वयं का कुछ कल्याण दिखाई दे रहा है। कष्ट भोगने में दूसरों की आवश्यकता नहीं है। बल्कि दूसरों से बिल्कुल अलग होना पड़ता है। कष्ट की अवधारणा पूर्णतया स्वार्थभयी है, जबकि आनन्द में जितने लोग दूसरे लोग शामिल होते जाएँगे, उतना ही आनन्द बढ़ेगा। आनन्द इन्सान की सोच को विस्तृत करता है। उसका दायरा असीमित हो जाता है। उसकी गतिविधियाँ स्वतः ऐसी हो जाती हैं, जो दूसरों को आनन्द प्रदान करें। इस बात की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है कि इन्सान इस बात को याद रखना सीख जाए। हर पल इस बात को ध्यान रखे कि जीवन का स्वभाव आनन्द है। बात जितनी आसान लग रही है, उससे थोड़ी कठिन है। इस दिशा में सिर्फ़ यही काम सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है - इस बात को स्मृति में रखना कि हर पल मुझे आनन्द अवस्था में रहना है, अपने आप सारी सोच, सारे कृत्य सुधर जाएँगे। जीवन की दिशा ही बदल जाएगी। 





ये जीवन में चापलूसियाँ, चालाकियाँ, नक़लीपन, दूसरों को धोखा देना, सब कुछ निकल जाएगा, क्‍योंकि जो भीतरी आनन्द अवस्था की दशा में हो, वह यह सब कर ही नहीं सकता। ये सब जीवन के आनन्द को समाप्त करने वाली बातें वह सोच भी नहीं सकता। बड़े से बड़ा तथाकथित धार्मिक व्यक्ति भी जालसाज़ी इसलिए कर लेता है, क्योंकि वह अपने मूल स्वभाव को भूला हुआ है। वह धर्म का भी ढोंग कर रहा है। भीतर की कोई यात्रा नहीं है। 

दुख ढूँढना बंद करें :---

कुछ लोगों को दुःखमय रहने की आदत-सी हो जाती है। वे जहाँ दुःख नहीं होता है, वहाँ भी दुःख ढूँढ़ लेते हैं। जब धन नहीं होता है, तो धन नहीं होने का दुःख, जब धन आने लगता है, तो और केसे आ सकता है इसका दुःख, जब और धन आ जाता है  तो उसे सम्भालने का दुःख, कहीं धन कम न हो जाए, इसका दुःख यानी वे हर स्थिति में दुःख को ढूँढ़ लेते हैं। 

एक बार एक महिला का जन्मदिन था। एक पार्टी आयोजित की गई। पार्टी इसलिए आयोजित होनी चाहिए थी कि इस अवसर पर आनन्द उत्सव मनाया जा सके, पर शायद यहाँ उद्देश्य कुछ अलग था। जान-पहचान वालों में इज़्ज़त का सवाल था। सबकी पार्टियों में जाते हैं, हम नहीं करेंगे लो लोग क्या कहेंगे ? पार्टी का क्या निश्चय हुआ, जैसे घर में तनाव शुरू हो गया। हर बात में मतभेद। पति को कौन-सी जगह पसन्द है, तो पत्नी बोलती है, जन्मदिन मेरा है या आपका। मेरी पसन्द की जगह होनी चाहिए। बच्चे कुछ और ही कह रहे हैं। हर बात में वही तनाव। खाने में क्या होगा ? किस-किस को बुलाना है? कार्यक्रम कैसे होगा ? यह सब तय करने में न जाने कितनी बार झगड़ा हुआ। पति मन ही मन बार-बार सोच रहा था, पता नहीं किसने यह जन्म दिन पार्टी का सिस्टम बनाया। 

जिन-जिन को बुलाया गया था, वहाँ भी कुछ कम नहीं था। क्या पहनना है। गिफ्ट क्‍या देना है? मेरी बर्थ-डे पर उसने यह दिया था। न जाने कितनी तरह की उलझनें। किसी का पति शाम को जल्दी नहीं आ पाया, पत्नी तैयार होकर बैठी है ओर गुस्सा कर रही है। किसी को कोई ज़रूरी काम छूट जाने का तनाव! 

अपनी इज़्ज़त बनाकर रखने के लिए महिला के पति व बच्चों ने मिलकर एक कार उसको जन्मदिन पर तोहफे में दी। सब बडी खुशी दिखा रहे थे। मन ही मन कई महिलाएँ सोय रही थीं, देखो इनके घर में कितना अच्छा है। एक-दूसरे से कितना प्यार करते हैं? हमारे पति ने तो कभी अच्छा तोहफ़ा लाकर नहीं दिया। 

पार्टी समाप्त हुई। सब लोग चले गए। धर पर सबके थेहगें पर जो हैंसी दिखाई दे रही थी, पता नहीं कहाँ गायब हो गई, जैमे कोई नक़ली मुखौटा लगा रखा था, जो पार्टी ख़त्म होते ही उतार दिया गया। पत्नी बोली कार ही देनी थी, तो कम से कम मेरी पसन्द की तो देते और नाम मेरा कर दिया और चलाएँगे सभी। 

कुछ लोगों को दुःख दढूँढने में इतनी महारत हासिल हो जाती है कि वे कितनी भी अच्छी से अच्छी बात में दु ख ढूंढ लेते हैं। जब आप दूसरों को दिखाने के चक्कर में पड़ जाते हो, तो यह नक़लीपन बड़ी तक़लीफ़ देता है। हर समय यही चिन्ता खाए जाती है कि लोग क्या कहेंगे। अच्छे से अच्छे खुशी के अवसर को सिर्फ इस बात के पीछे दुख में बदल देते हैं कि लोग कया कड़ेंगे। इसीलिए यह कहावत बन गई है कि 'सबसे बड़ा रोग, क्‍या कड़ेंगे लोग'। 

कुछ लोगों को दु खी रहने की इतनी आदत हो जाती है कि सब कुछ ठीक चल रहा होता है, सारी बात खुशी की है, लेकिन उनको जैसे असामान्य सा लगता है। वे ऐसी घड़ी में भी दुख की कल्पना करने खग जाते हैं। वर्तमान में कुछ गलत नज़र नहीं आ रहा हो, तो भविष्य की आशकाओं से भर जाते हैं। यह सब इसलिए होता है कि वे अपने मूल स्वभाव का स्मरण नहीं रखते हैं। यदि पूल स्यभाव का स्मरण हर पल रहे, तो इन्सान हर समय आनच्दित रह सकता है। वह भी भीतरी आनन्द। इसका अभ्यास करो। अध्यान करते करते एक दिन ऐसा आएगा कि हर जगह, हर परिम्थिति ने आनन्द ही आनन्द का एडसास होगा। आश्चर्य होगा कि जो इन्सान कहता है कि ससार दुख का सागर है, वही इन्सान अपने पमृल स्वभाव का स्मरण करते हुए आनन्द में रहने लग जाएगा, तो उसके 

चारों तरफ का माहोश् भी आनन्वभय हो जाएगा और यह कड़ेगा ससार आनन्द का सागर है। दु ख् ओर आनन्य दोनों ही भाव-जगत 

की देन हैं। बाहरी जगत से इनका कोई नाता नहीं है। बात स्मरण में आने की देर है, बस जिस तरह फूल का स्वभाव खिलना है, हवा का स्वभाव है बहना, पानी का स्वभाव है शीतलता। पानी को आप कितना भी गरम करो, जैसे ही उसको अपनी अवस्था में छोड़ोगे, वह पुनः शीतल हो जाएगा, लेकिन यदि पानी को लगातार गरम ही करते रहोगे, तो वह अपने मूल स्वभाव में कैसे आ पाएगा। उसी प्रकार यदि जीवन में दुःखों का ही स्मरण करते रहोगे, तो जीवन अपने मूल स्वभाव में नहीं आ पाएगा। यदि आप भावों को निष्क्रिय कर दो और पूर्ण शान्त अवस्था में चले जाओ, तो चित्त स्वतः आनन्द अवस्था में चला जाएगा, क्योंकि वह उसका मूल स्वभाव है। आनन्द तो बिना प्रयास भी मिल सकता है, लेकिन दुःख के लिए तो भावों में जाना ही पड़ेगा, कुछ प्रयास करना ही पड़ेगा और जब प्रयास ही करना है, तो दुःख के लिए क्‍यों ? आनन्द के लिए क्‍यों नहीं किया जाए? 

अभ्यास के लिए उन पलों का स्मरण करो, जब आपके जीवन में असीम आनन्द का अनुभव हुआ हो, जब-जब कुछ सकारात्मक घटित हुआ हो। हमारी कुछ आदत-सी हो गई है कि हम नकारात्मक बातों का ज़्यादा स्मरण करते हैं। किसी में 100 अच्छाई हैं, तो उसकी बात नहीं करेंगे, लेकिन कोई एक बुराई है, तो उसकी बात अवश्य करेंगे। किसी ने हमारा अपमान किया हो उसे ज़रूर याद रखेंगे और उसी ने कभी हमारा सम्मान किया हो तो उसे भूल जाएँगे। कोई अप्रिय बात हो गई हो, तो बड़े ज़ोर-शोर से चर्चा करेंगे, लेकिन कोई प्रिय बात हुई हो, तो उसे सामान्य समझ कर भूल जाएँगे। क्‍या शौक़ चढ़ा है ऐसा दुःखों को खोजने का? क्‍यों पानी को गरम करने में लगे हो ? उसे अपनी शीतलता में रहने दो। जीवन के आनन्द-कमल को खिलने दो। उसमें बाधक मत बनो। परमात्मा द्वारा दी गई सौगात का यों अपमान मत करो। 

ज़्यादातर लोग आनन्द में रहना तो चाहते हैं, पर वे आनन्द को मात्र धन में या भोग विलासिता में समझते हैं। धन का अपनी जगह महत्व है, लेकिन केवल भोग-विलासिता को आनन्द का स्रोत समझना बहुत बड़ी भूल है। धन का इतना ही महत्व है कि वह बाहरी 


जैविस्वकषतीजा की पूरा करता रहे, ताकि ये बाहरी आवश्यकताएँ भीतरी यात्रा को बार-बार विचलित न करें, लेकिन धन को अन्तिम आनन्द मान लेना आनन्द से दूर होना है। इसी के चलते कई लोग धन-लोलुप हो जाते हैं। येन-केन-प्रकारेण धन पाना चाहते हैं। वे दूसरों के साथ चापलूसियाँ और धोखाधड़ी करने लग जाते हैं और असली आनन्द से दूर होते जाते हैं। वे भोग-विलासिता के चक्कर में क़र्ज़ ले लेते हैं और ज़्यादा परेशानियों में पड़ जाते हैं। धन से जीवन में आनन्द मिलता है, यदि इसके महत्व को ठीक से समझ लो तो। 

आनन्दमय होने का तरीक़ा थोड़ा अलग है। अपने आपके भावों को विकार-मुक्त करना, व्यर्थ की चेष्टाओं और आकांक्षाओं से मुक्त करना, निडर होना, यही आनन्द अवस्था है। इसमें कोई चापलूसी नहीं चल सकती है। यह दूसरों को दिखाने के लिए नहीं है। यह भीतर की बात है। 

पानी का स्वभाव शीतलता है, लेकिन यदि पानी को दिनभर आग की भटटी पर रखोगे, तो क्‍या वह शीतल रह पाएगा ? इसी प्रकार यदि भावों को भी दिनभर विकारों, अनर्गल चेष्टाओं, आकांक्षाओं या डर की भट्टी पर रखोगे, तो क्‍या वे आनन्द अवस्था में रह पाएँगे ? 

हमारे यहाँ मृत्यु के बारे में बड़ी शिक्षा दी जाती है कि मृत्यु एक शाश्वत सत्य है। जो भी जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है। जो भी जीव जन्म लेता है, वह उसी क्षण से मृत्यु के साथ-साथ चलता है। किसी भी क्षण वह मृत्यु को प्राप्त कर सकता है। हर पल इन्सान को मृत्यु का बोध रहना चाहिए। केवल शरीर मरता है, आत्मा अजर-अमर है। मनुष्य क्या साथ लेकर आया था, क्या साथ लेकर जाएगा। यह शरीर मिट्टी का पुतला है, इसका इतना मोह मत करो। जीवन चन्द घड़ियों का खेल है। इस प्रकार की अनेक शिक्षाएँ हमको दी जाती हैं। क्‍या इस दुनिया में एक भी व्यक्ति ऐसा हुआ, जो यह कह पाया हो कि जीवन जब एक खेल ही है ओर यह समाप्त ही होना है, तो मैं क्‍यों इतनी मेहनत करूँ। क्‍यों न इसको ऊपर वाले के भरोसे छोड़ दूँ, जो होगा सो हो जाएगा। बचा तो मैं वैसे भी नहीं सकता। कितनी भी कोशिश करेगा, तो भी वह नहीं 

कर पाएगा। आत्महत्या भी कोई इस सोच से नहीं करता। वह तो अपने भावों को विकारों की भट्टी पर इतना ज़्यादा तपा लेता है कि वह आनन्द की एकदम विपरीत अवस्था में चला जाता है, अन्यथा यह किसी भी इन्सान के वश में है ही नहीं, क्‍योंकि परमात्मा ने मनुष्य का स्वभाव सृजनात्मक बनाया है। सृजनात्मकता आनन्द का ही रूप है। इन्सान जैसे ही मृत्यु-बोध में जाएगा, वह तत्काल यही सोचेगा कि मैं कुछ न कुछ सृजन करके जाऊँ, क्‍योंकि यही उसका स्वभाव है। अलग-अलग व्यक्ति की गतिविधियाँ अलग-अलग हो सकती हैं। जीवन को मिथ्या धारणाओं में जकड़ लेने से उनके निर्णय विपरीत भी हो सकते हैं, पर यह निश्चित है कि जीवन का स्वभाव दुःख नहीं है, उसका स्वभाव आनन्द है। 





ब्लॉग नाम-- प्रेरणा डायरी। 
Prernadayari.blogspot.com
राइटर -- kedar Lal ( K. S. Ligree)