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शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

विजयादशमी ( दशहरा)-- चरित्र और सत्य कि विवेचना का पर्व, एक प्रेरणादायी लेख।


हिण्डौन सिटी (राजस्थान)

Motivational dayri ( प्रेरणा दायक डायरी/ मोटीवेशनल डायरी ) की आज कि पोस्ट विजयादशमी  (दशहरा)  के त्योहार पर आधारित एक प्रेरणा दायक      (Motivational) लेख है। जो राम और रावण जैसे महान चरित्रों से शिक्षा प्राप्त करने के लिए है।  विजया दशमी हमें चरित्र ,सत्य एवं व्यक्तित्व कि तुलना का अवसर प्रदान करने वाला है। यह केवल रावण वध का त्योहार नही है। यह " बुराई पर अच्छाई कि जीत का प्रतिक है। हमें हमारी संस्कृति के दर्शन कराता है। रावण चाहे लाख शक्तिशाली था पर उसे सत्य और धर्म के पुजारी श्री राम के सामने पराजित होना । 

क्या फ़र्क है राम और रावण में : -----

आचरण श्रीराम और रावण को मानवीय धरातल पर अलग-अलग करता है। ऊपर से देखें तो दोनों में अनेक समानताएं भी हैं जैसे-दोनों वेदों को मानते हैं, दोनों शिव के उपासक हैं, दोनों अपने कुल और परिवार से प्रेम रखते हैं, दोनों कुशल योद्धा हैं। ऐसी कुछ समानताओं से भ्रमित होकर अनेक विचारक रावण के नायकत्व की प्रतिष्ठा करने की चूक करते दिखाई पड़ते हैं। परन्तु, गम्भीरता से देखने पर इनमें जो अन्तर हैं वे स्पष्ट होते हैं। उदाहरण के लिए- श्रीराम मतभेद की स्थिति में पिता से प्राप्त राज्य सिंहासन भाई को सौंप देते हैं। रावण ने मन के प्रतिकूल विचार देने पर भाई को लात मार कर घर से निकाल दिया। श्रीराम अपनी पत्नी सीता को साथ रखते हैं, सब प्रकार से उनके भावों की रक्षा करते हैं और जीवनपर्यन्त किसी अन्य का वरण नहीं करते जबकि रावण अपनी परम सुन्दरी व सुलक्षणा पत्नी मन्दोदरी के रहते, उसके समक्ष ही अन्य स्त्रियों से प्रणय याचना करता है। श्रीराम विरक्त वनवासी होते हुए जानकी के कहने पर मायामृग को मारने जाते हैं जबकि रावण मन्दोदरी के बारम्बार कहने पर भी सीता जी को मुक्त नहीं करता। श्रीराम अपने सभी निर्णयों के लिए अपने सहयोगियों से विमर्श करते हैं, जबकि रावण युद्धकाल में भी अपने हितैषियों की बातें नहीं मानता, बल्कि सही होने पर भी नापसन्द बात कहने के लिए उन सबको फटकारता भी है। यह सुविदित है कि श्रीराम अपने अतिमानुष बल से सहज ही रावण को मार सकते थे, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। समाज में धन, स्त्री और शान्ति का अपहरण करने वाले रावण के विरुद्ध श्रीराम ने एक लम्बी विचार-यात्रा निकाली। इसमें वनवासी-गिरिवासी और वानर-भालुओं तक को उन्होंने एकसूत्र में बांधा और अन्याय के प्रतिकार के विरुद्ध एकात्म कर दिया। श्रीराम की विजय-य -यात्रा रावण के मारे जाने तक ही सीमित नहीं है, अपितु यह रावणत्व के संहार की परम्परा का प्रवर्तन करने में चरितार्थ होती है। 



मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम :------

रावण के वध के बाद श्रीराम विभीषण से कहते हैं कि मृत्यु के साथ ही वैर का भी अन्त हो जाता है, अब तुम रावण का अन्तिम संस्कार विधि-विधान से करो, यह तुम्हारी तरह मेरा भी प्रिय है। यही रामत्व की वह व्याख्या है जो समूचे विश्व का आदर्श बनी हुई है कि अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं। दशहरा हमें चरित्र व व्यक्तित्व की उस तुलनात्मक समीक्षा से परिचित कराता है जिससे लोक हितकारिणी मनुष्यता को पहचानने, जीने की योग्यता हमें प्राप्त हो सके। यह केवल रावण वध का ही पर्व नहीं है बल्कि यह रावणत्व को पहचानने और उसके प्रतिकार के लिए कृतसंकल्प होने का भी अवसर है। 

सत्य की सदा जय का उद्घोष सनातन की पहचान है। यही उद्घोष भारतीय जीवन को प्रत्येक परिस्थिति में सत्यनिष्ठ बनाए रखता है। विजयादशमी का पर्व इसी सत्यनिष्ठा का पावन प्रमाण है। श्रीरामायण कथा भौतिक रूप से अतुल्य बल वाले रावण पर श्रीराम की विजय के प्रसंग से हमारी दृष्टि सत्य की अजेयता पर ले जाती है। दस सिर और बीस भुजाओं वाला, लोकजयी, शिवभक्त, स्वर्णनगरी का अधिपति और स्वयं यमराज को भी अपने अधीन कर लेने वाला रावण सपरिवार मारा जाता है। 
उसे मारता कौन है ? कन्द-मूलफल आदि का आहार करने वाले, तपस्वी, वनवासी, जटा-वल्कलधारी पत्रिका AI श्रीराम। भारतीय सनातन जीवन दृष्टि असाधारण है, इसमें बल मात्र इन्द्रियों में निहित नहीं है। अपितु इन्द्रियों के संयम में निहित है। रावण के पास समस्त भोग-ऐश्वर्य विद्यमान हैं और श्रीराम सारे सुख-भोग त्यागकर संयम और तप का जीवन जी रहे हैं। परन्तु जब श्रीराम और रावण का संघर्ष होता है तो भोगों से पुष्ट बल व्यर्थ हो जाता है और तपस्या से अर्जित शक्ति बड़ी दिखाई पड़ती है। इसी बात को लक्ष्य करके कहा गया है कि-- 

"रामादिवत् वर्तितव्यं न तु रावणादिवत् अर्थात् श्रीराम के जैसा बर्ताव करना चाहिए, रावण के जैसा नहीं। 



शान्ति दूत श्री राम : ------



राम कभी नीति के धर्मानुशासन का उल्लंघन नहीं करते। वे युद्ध से पहले शान्ति प्रस्ताव भेजते हैं। शत्रुपक्षीय विभीषण को शरण में लेते हैं। युद्धकाल में भी लंका के भीतर निवास करते स्त्रियोंबालकों आदि पर प्रहार न करते हुए केवल सामने आए हुए को ही मारते हैं। इतना ही नहीं युद्ध में एक ऐसा भी प्रसंग है कि रावण समेत सभी आश्चर्य में डूब जाते हैं। एक दिन युद्धस्थल से थका-विषाद ग्रस्त रावण महल आता है तो मन्दोदरी को आशंका होती है कि आज फिर कोई प्रियजन युद्ध की भेंट चढ़ गया है लेकिन रावण कहता है ऐसा नहीं है। 
मैं तो विचलित हूं राम के व्यवहार से। आज उस तपस्वी राघव ने मुझे शील का बाण मारा है, जिसकी वेदना असह्य है। निःशस्त्र होकर रथ से नीचे गिरने पर भी मुझे 
के स्थान पर उसने छोड़ दिया और कहा कि- "लंकेश, अभी तुम युद्ध करने में समर्थ नहीं हो और मैं रघुवंशी होकर असमर्थ को नहीं मार सकता, तुम्हें प्राणदान देता हूं। जाओ, स्वस्थ होकर आना तब तुम्हारा वध करूंगा।" रावण मन्दोदरी से कहता है कि इस पीड़ा का कोई उपचार मेरे पास नहीं है। राक्षसों से लड़ते हुए भी श्रीराम मानवीय मूल्यों की शक्ति प्रदर्शित करते हैं।