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शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

अपने आत्मबल को समझे। understand your self confidence.

Hindaun, Rajasthan, 01/11/2023

दोस्तों नमस्कार।
 प्रेरणा डायरी, motivation dayri  कि आज कि पोस्ट में आप सब का हार्दिक अभिनंदन है। आत्मबल/self confidence के बिना इंसान अधूरा है। आत्म विश्वास जीवन जीने की एक कला है। जिस दिन आपको यह कला आ गई, समझ लो आपको सब कुछ मिल गया। आज के इस सार गर्भित लेख (अर्टिकल्) में हम, आईये समझने का प्रयाश करते है, आत्मबल के मर्म को ----


भूमिका  ---


हर आत्मा में अक्षुण्ण बल है। इस बल का सदुपयोग हो जाए, 
ह तो हर मनुष्य कमाल कर सकता है। वह अपने ही नहीं 
दूसरों के जीवन को भी धन्य कर सकता है। वह बहुत कुछ सृजन कर सकता है। हर आत्मा की अलग-अलग विशेषताएँ हैं। सबका अलग-अलग स्वभाव है। सबकी अलग-अलग सृजनात्मकता है। सबके लिए कोई एक मार्ग निर्धारित नहीं किया जा सकता। कोई दूसरा किसी के बारे में पूरी तरह जान भी नहीं सकता। किसी और के लिए अपनी कोई राय बनाने में पूर्ण सत्यता हो ही नहीं सकती। इसी तरह अपने लिए पूर्ण ज्ञान बाहर कहीं से मिल ही नहीं सकता। वह तो अपने भीतर ही खोजना होगा। एक गुरु 100 शिष्यों को लगातार 10 साल तक एक ही तरह की शिक्षा देता है, लेकिन शिक्षा लेने के पश्चात सबमें कुछ न कुछ भेद होगा। सबका कर्म करने का, सोचने का सृजन करने का तरीक़ा अलग-अलग होगा। कोई भी दो हूबहू एक तरह के नहीं हो सकते। 

दूसरों पर निर्भर मत रहो -- 

बाहर से कितना भी ज्ञान ले लो, लेकिन साथ में आत्म-शक्ति का ज्ञान भी करना होगा। वहाँ दूसरों पर निर्भर मत रहो। दूसरे वह मार्ग बता देंगे, जो आपके अनुकूल नहीं है। आपकी शक्ति किसी और तरफ़ प्रवाह कर रही है और आप किसी और के कहने से दूसरी तरफ़ जाने का प्रयास करेंगे, तो क्या स्थिति होगी, आप समझ सकते हैं। ...लेकिन हमें दूसरों पर भरोसा ज़्यादा और अपने आप पर भरोसा कम है। बात यह नहीं है कि दूसरे जो बात कर रहे हैं, वह ग़लत है, वह भी सत्य हो सकती है, परम सत्य हो सकती है, 
बड़ी ही मूल्यवान हो सकती है, आपके लिए बड़ी उपयोगी हो सकती है, लेकिन वह कितनी ही मूल्यवान बात हो उसमें एक अधूरापन रहेगा ही। यहाँ कहने का यह भाव भी नहीं है कि आप दुनिया में किसी को भी सुनना छोड़ दो। यह आपके ऊपर है कि आप किसे सुनना पसन्द करते हैं, कौन आपको ज़्यादा प्रभावित करता है। यहाँ कहने के पीछे भाव यह है कि आप लाख बाहर से ज्ञान अर्जित कर लो, जब तक अपनी आत्म-शक्ति का ज्ञान नहीं करोगे, तब तक बात अधूरी ही रहेगी। 


अपनी ऊर्जा को सही दिशा दें --



हर इन्सान के भीतर एक बहुत विशाल जगत है। बहुत सारी ऊर्जाएँ हैं, जिनमें लगातार प्रवाहित होने की प्रवृत्ति है। उनको रोकना असम्भव है। यदि उनको आप सही मार्ग नहीं दे पाए, तो वे या तो कुंठित होकर आपको मानसिक रुग्णावस्था में डाल देगी या विध्वंसात्मक बन जाएँगी । ऊर्जा हमेशा सृजन करना चाहती है, पर जब सृजन का अवसर नहीं मिलता है, तो वह विध्वंस की ओर बहने लगती है। कई ऐसे मनुष्य होते हैं, जिनमें ऊर्जा का वेग बड़ा ही प्रबल होता है। वह ऊर्जा ऐसा कुछ करना चाहती है, जिसे सारा संसार जाने। उस ऊर्जा का यदि सही उपयोग हो जाए, तो इस संसार के लिए बड़ा ही सुन्दर कार्य हो सकता है और यदि इसका सही उपयोग नहीं हो पाया, तो वह इन्सान या तो पागल हो सकता है या कोई विनाश कर सकता है। किसमें कितनी ऊर्जा है, वह क्या करना चाहती है, किस प्रकार उसको बेहतर दिशा दी जा सकती है, इस बारे में जितना दूसरों पर निर्भर रहोगे, उतने ही ज़्यादा गुमराह होओगे। दूसरा कितना ही अच्छा हो, कितना ही अनुभवी हो, आपके अन्तर को वह नहीं पढ़ सकता। यह यात्रा तो स्वयं को ही करनी होगी। दूसरा आपको जगा सकता है, बता नहीं सकता। 

जिन लोगों ने इस बात को समझ लिया वे किसी के पिछलग्गू नहीं बनते। वे आत्म-शक्ति को स्वयं पहचानते हैं। वे अपनी आत्मा की आवाज़ को बड़े ध्यान से सुनते हैं। वे दूसरों की बातों में आकर भयग्रस्त नहीं होते हैं, अपनी आत्मा की आवाज़ को दबाते नहीं हैं। स्वयं पर अपने विश्वास को कमज़ोर नहीं करते हैं। वे आँखें बन्द | करके नक़ल नहीं करते, बल्कि अपना कुछ अलग करने का जज्बा रखते हैं। इसीलिए यह देखने में आता है कि सृजन करने वालों का सबका अपना-अपना तरीक़ा होता है। 
मानव जीवन पूर्णता लिए हुए है, यह बहुत मूल्यवान उपलब्धि है। यह परमात्मा की एक बहुत विलक्षण और पवित्र कृति है। यह आनन्द का सागर है। इससे बेहतर इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी नहीं, लेकिन पता नहीं क्यों दृष्टि को दूषित किया जा रहा है? हमें बार-बार यह समझाया जा रहा है कि हम नीच, पापी और निर्बल हैं। हमें माँगना सिखा-सिखा कर भिखारी बना दिया गया है। हमारी आत्म-शक्ति को भुलाने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया गया है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जो जितना ज्यादा तथाकथित धर्म का पालन कर रहा है, वह उतना ही ज़्यादा अन्दर से कमज़ोर होता जा रहा है। उसको पूरा दिग्भ्रमित कर दिया जाता है और डरा दिया जाता है कि ज़रा-सा भी इस लाइन से बाहर जाओगे, तो पाप के भागीदार बन जाओगे ...और वह इन्सान इस पाप के डर से अपनी सारी शक्तियों को भूलकर लकीर का फ़क़ीर बन जाता है। सबके सोचने, समझने और आत्म-निरीक्षण की क्षमता को शिथिल कर दिया गया है। 

क्या हम रोज़-रोज़ अपने आपको पतित कहकर परमात्मा द्वारा दिए गए इस अनमोल जीवन का अपमान नहीं कर रहे हैं ? क्या हम अपने आपको पतित कहकर इस जीवन में कुछ श्रेष्ठ कर पाएँगे ? क्या हम रोज़-रोज़ परमात्मा से कुछ माँगकर, जो हमें मौलिक रूप से मिला है, उसको भूलते नहीं जा रहे हैं? कुछ सवाल करो अपने आपसे और ईमानदारी से उनके जवाब ढूँढ़ो, सारी बात समझ में आ जाएगी। 

अपने को पतित ना समझे --


अपने आपको पतित समझना सबसे गिरी हुई बात है। जैसा हम अपने बारे में सोचेंगे, वैसे ही हम बनते जाएँगे। हमारे भीतर यह बात बहुत गहरे में बैठ गई है कि हम कमज़ोर हैं, इसलिए हम सहारा खोजते रहते हैं। हम सोचते हैं कि किसी का सहारा मिल जाए, तो शायद मैं अपने जीवन में कुछ कर सकूँ। आपने अपने भीतर उस शक्ति को विस्मृत कर दिया, जो जगत का निर्माण कर सकती है। आपने अपनी ऊर्जा को संकुचित कर लिया। सारा ध्यान 

इस बात पर केन्द्रित कर दिया कि कहीं से कुछ मिल जाए और में बस उसका सहारा लेकर चल पहूँ। अपनी ज़िम्मेदारी के दायरे को बहुत कम कर लिया। हम दूसरों की कहानियाँ बड़े गर्व से पढ़ते हैं, पर कहानी बनाने की नहीं सोचते हैं। । 
हम बस इसी इन्तज़ार में बैठे रहते हैं कि कोई महान आएगा, तो हमारी ज़िन्दगी सेंवर जाएगी। हम पूरी तरह अपने आपको दूसरों पर निर्भर बना चुके हैं। हम यह मान चुके हैं कि मैं तो कमज़ोर हूँ, मुझमें इतनी सामर्थ्य कहाँ कि मैं अपने आप कुछ निर्णय लेकर, कुछ ज़िम्मेदारी लेकर कोई कहानी बना सकूँ। हम हमेशा दूसरों से आशीर्वाद माँगते रहते हैं कि बस आपका आशीर्वाद मिल जाए तो ही मैं कुछ कर पाऊँगा। उसके बिना तो मैं कुछ कर ही नहीं सकता। ये शब्द सुनने में बड़े अच्छे लगते हैं, पर ये इन्सान को कमज़ोर बनाते हैं, ये उसकी दूसरों पर निर्भरता को बढ़ाते हैं। यह बात मन में बैठ जाती है, तो इन्सान हर असफलता में यही सोचता रहता है कि मुझे पूरा आशीर्वाद नहीं मिला, मुझे अभी और किसी का आशीर्वाद लेना है, तब ही मैं सफल हो पाऊँगा । वह अपनी शक्ति 
को और जगाने की बात नहीं सोच पाता। अपने सोचने की 
आज से अपने सोचने के अन्दाज़ को बदलो। जो भी जीवन में मिला है, उसका बस धन्यवाद दो और यह सोचो कि बस अब तो मुझे इतना मिल गया है। अब आत्म-शक्ति द्वारा सफल होकर ही रहूँगा। अब मैं दुनिया से रास्ता जानने वाला नहीं रास्ता दिखाने वाला बनूँगा। मुझे परमात्मा ने इतना शक्तिशाली बनाया है। इन शक्तियों का उपयोग मैं पूरी ज़िम्मेदारी से करूँगा। ...और आप देखोगे कि अब आपकी पूरी दिशा ही बदल चुकी है। आपके विचारों में ऊर्जा आ गई है। नित-नया सृजन दिखाई देने लगा है। जिसे आप सोच भी नहीं सकते थे, उसे अब एक-एक करके सच साबित करते जा रहे हो। बस, किसी अहंकार में मत पड़ना। परमात्मा से कुछ माँगना मत, पर परमात्मा को धन्यवाद देते रहना। उसके द्वारा दी गई शक्तियों को धीरे-धीरे पहचानने लग जाओगे। महसूस 
होने 
लगेगा कि उसमें कितना आनन्द है। बस, इसी राह पर चलते रहना। जीवन से दूसरों पर निर्भरता घटती जाएगी और आत्म बल बड़ता जायेगा। 

अपनी आत्मबल शक्ति को पहचाने ---



अपनी शक्ति को पहचानने में दो बहुत बड़ी-बड़ी बाधाएँ हैंसाहस की कमी और डर! आदमी सोचता है, जिस तरीक़े से मेरी पीढ़ियाँ चलती आ रही हैं, जिस तरीक़े पर पूरी दुनिया चल रही है, वह सही ही होगा। भले ही उसके परिणाम ग़लत आ रहे हैं। वे दिखाई दे रहे हैं, पर सबसे अलग हटकर सोचने का साहस वह नहीं कर पाता। वह कभी-कभी अलग राह के लिए सहमत भी हो जाता है, पर फिर भी हिम्मत नहीं कर पाता। एक मान्यता बन गई है कि जिस काम को भीड़ कर रही है, वह सही ही होगा। लेकिन सच यह है कि जिसे भीड़ कर रही है, वह सही ही हो यह ज़रूरी नहीं। दूसरा है पाप-पुण्य का डर! किसी बात का पालन नहीं करूँ, तो कहीं मुझे नर्क नहीं मिल जाए। अगले जन्म में मुझे सज़ा नहीं मिल जाए! कहीं मैं इन्सान से जानवर तो नहीं बना दिया जाऊँ! ऐसी-ऐसी कहानियाँ बना-बना कर इन्सान को इतना अधिक डरा दिया गया है कि अभी का नर्क उसे दिखाई नहीं देता भविष्य का नर्क उसे दिखाई देने लगता है। यह बात किसी को समझ नहीं आती कि डर से बड़ा कोई नर्क नहीं है। सिर्फ़ इस वजह से किसी भी लकीर को पकड़ लेना कि यह करने से स्वर्ग मिलता है और यह करने से नर्क मिलता है, हम अपने साथ कितना बड़ा खिलवाड़ कर रहे हैं। किसने दिए ये पैमाने ? किसी ने कुछ भी कहानी बना दी और बड़े आश्चर्य की बात है कि पूरी दुनिया उसके पीछे लग जाती है। परमात्मा ने हमें इतना सुन्दर जीवन-स्वर्ग दिया है, वह दिखाई नहीं देता है। 

हम अपने ही कृत्यों से इस दुनिया को नर्क में तब्दील करते जा रहे हैं, वह हमें दिखाई नहीं देता है। यह सिर्फ़ हम करते जा रहे हैं, एकमात्र डर की वजह से। हम इतने ज़्यादा डर चुके हैं कि कोई भी हमें आसानी से डरा देता है। कोई भी कहानी हमारे ऊपर थोप देता है और हम उसके बड़े भक्त हो जाते हैं। कोई थोड़ी अच्छी कहानी बना लेता है, तो हमारे लिए वह भगवान हो जाता है। फिर किसकी हिम्मत जो उसकी बात नहीं माने। बात नहीं माने, तो नर्क का भागीदार बनता है। 


डर के भी दो प्रकार हैं- एक कुछ अनिष्ट होने का डर या कुछ खोने का डर, दूसरा डर है कुछ मिलने का लालच में यह करूंगा, तो इतना फल मिलेगा। इस जन्म में इतना फल मिलेगा या अगले जन्म में इतना फल मिलेगा। नहीं करने पर यह सब छूट जाएगा। यह भी एक प्रकार का डर ही है। हमें कितना हिसाबी बना दिया गया है। धर्म में भी सौदेबाज़ी। इस हाथ दे और उस हाथ ले। यह कोई धर्म है ? यह कोई आत्मा की आवाज़ है? यह तो निश्चित है कि डर की वजह से किए गए कार्य का अंजाम जो भी हो, पर डर अपने आपमें बहुत बुरी बला है। यह किसी भी बुरे से बुरे नर्क से कम नहीं है। यह अपनी आत्मा की हत्या है, यानि यह सबसे बड़ी आत्म-हत्या है। इसीलिए शायद कहावत बनी कि 'जो डर गया वो मर गया' । शरीर को मार लेना तो सिर्फ़ शरीर की हत्या है, लेकिन डर के वशीभूत होना सबसे बड़ी आत्म-हत्या है। 
किसी की बनाई हुई लकीरों पर चलना जीवन की प्रकृति नहीं है। यदि किसी की बनाई हुई लकीरों पर चलने का प्रयास करोगे, तो हमेशा भ्रान्त अवस्था में रहोगे। जीवन निज की यात्रा है। अपनी आत्मा की आवाज़ को पहचानना सीखो और अपने मार्ग की स्वयं खोज करो। डरा हुआ इन्सान हमेशा दुविधा में रहता है। जब उसे सत्य का पता लगता है, तो वह कुछ अपनी आत्म-शक्ति से निर्णय लेने के लिए सोचता है। जैसे ही वह सोचना शुरू करता है, डर उसमें व्यवधान पैदा करता है। अपनी ओर से कुछ करने की हिम्मत को पस्त कर देता है। वह कुछ निर्णय ही नहीं कर पाता और बड़ी दुविधा में पड़ा रहता है। दुविधा जीवन के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। दुविधा में रहने वालों जैसी बुरी दशा आप किसी की न पाएँगे। 


जिस प्रकार जो पत्थर बिल्कुल दाग़-रहित होता है, वही हीरा कहलाता है। ज़रा-सा भी दाग़ जो कि नंगी आँखों से दिखता भी न हो, तो भी हीरे की क़ीमत को कम कर देता है, उसी प्रकार डर का ज़रा-सा भी अंश आत्म-शक्ति को कमज़ोर कर देता है। बहुत पुरुषार्थ के बाद, बहुत जीवन गुज़ारने के बाद हम निर्णय लेने लायक़ बन पाते हैं, लेकिन छोटा-सा भी डर उस शक्ति को शून्य कर देता है। इसलिए जीवन में कुछ पाना है, तो अपनी आत्मा को 

सच्चा हीरा बनाओ। डर का हल्का-सा भी अंश उसमें न आ पाए, तब आप देख पाओगे कि आपके भीतर ही कितनी बड़ी शक्ति का भण्डार भरा पड़ा है। 
डर में यह हिसाब मत लगाना कि किससे डरना चाहिए और किससे नहीं डरना चाहिए। सीधी-सी बात है डर की वजह कोई भी हो, डर की वजह से किया गया हर कार्य ग़लत है, चाहे वह नर्क का डर हो, पाप का डर हो, गुरु का डर हो या अपमान का डर हो। इस डर से कुछ करना कि नहीं करूंगा, तो पाप लग जाएगा, यह सोच ही ग़लत है। वही काम आपकी आत्मा की आवाज़ से, भीतरी इच्छा से हो, तो वह पुण्य है। किसी को इसलिए नमस्कार करना कि नहीं करूँगा, तो नाराज़ हो जाएगा, क्या इसमें कोई आनन्द है ? जब कोई सामने आए और भीतर के भाव नमस्कार करने के लिए उमड़ पड़ें, आनन्द तो उसमें है। । 



एक बार डर के पिंजरे से बाहर तो आकर देखो, फिर अपने कृत्यों का ईमानदारी से निरीक्षण करो, फिर अपने विचारों का निरीक्षण करो, तुरन्त सही और ग़लत का भान हो जाएगा। आत्म-शक्ति पूर्ण जागृत हो जाएगी। बस हमारी खोज होनी चाहिए। यदि हमारी खोज ही नहीं है, तो स्वतः कुछ भी नहीं हो सकता। यदि विश्वास नहीं होता है, तो यह देख लो कि आज तक जिन लोगों को हम अपने जीवन में महापुरुषों के रूप में जानते हैं, क्या उनमें से ऐसा कोई है, जिसने डर के वशीभूत होकर या किसी लकीर का फ़क़ीर होकर अपना जीवन जिया है ? हम उन्हें महापुरुष सिर्फ़ इसीलिए मानते हैं, क्योंकि उन्होंने निडर होकर अपने आत्म-बल को प्रबल रूप में प्रकट होने दिया। उन्होंने अपने आपको बन्धन में नहीं बाँधा। उन्होंने अपना अलग रास्ता बनाया। जब वे लोग अलग रास्ता बनाकर महान बन सकते हैं, तो हम भी क्यों किसी बन्धन में बँधकर अपना जीवन गुज़ारें। हमारा अलग रास्ता क्या हो सकता है? अब यह विषय बिल्कुल निजी है। यहाँ दूसरे की सलाह बिल्कुल ग़लत सिद्ध होगी। आत्म-शक्ति को खुद को पहचानना है। यह किस • दिशा में प्रवाहित हो रही है खुद को ही खोज करनी है। 


धन्यवाद। 


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