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शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

सीखने के नियम और सिधांत ( Laws and Theories of learning) Learning -- part 2

नमस्कार दोस्तों LEARNING हमारें लिए बेहद मायने रखने वाला और सफ़लता दिलवाने वाला point है। इसीलिए प्रेरणा डायरी (motivation dayri) में कई पार्ट में इस पर चर्चा होगी। Learning --1 में आप लेर्निंग का अर्थ, परिभाषा, विशेषताओ और विधियों से रूबरू हुए। आज LEARNING--2 में नियम और सिधांतों कि बात होगी। शेष बचे सिंधान्त् हम part-3 में जानेंगे। तो आईये शुरू करते है। 

सीखने के नियम और सिद्धांत

[LAWS AND THEORIES OF LEARNING]

सीखना, जीवनपर्यन्त चलने वाली क्रिया है। व्यवहार में कोई भी अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन अधिगम है। यह पहले सीखी गई क्रिया या अनुभव का परिणाम है। सीखने के जिन नियमों तथा सिद्धान्तों की रचना विद्वानों ने की है, हम यहाँ उनका वर्णन कर रहे हैं।

सीखने के नियमो का महत्व
(IMPORTANCE OF LAWS OF LEARNING)
नियम, प्रकृति के अटल विधान हैं। पशु, पक्षी, पौधे, पुरुष- सभी प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। इसी प्रकार, सीखने के भी कुछ नियम हैं। सीखने की प्रक्रिया इन्हीं नियमों के अनुसार चलती है। कुछ लेखकों ने इन नियमों को 'सिद्धान्तों' (Principles) की संज्ञा दी है। जब भी हम कुछ सीखते हैं, तब हम इनमें से कुछ नियमों का अनिवार्य रूप से अनुसरण करते हैं। इनके महत्व का उल्लेख करते हुए रायबर्न ने लिखा है- "यदि शिक्षण विधियों में इन नियमों या सिद्धान्तों का अनुसरण किया जाता है, तो सीखने का कार्य अधिक सन्तोषजनक होता है।"

    
मेरी "प्रेरणादायक डायरी" -- उम्मीदों कि उडान


थार्नडायक के सीखने के नियम
(THORNDIKE'S LAWS OF LEARNING)
पिछले पचास वर्षों से अमेरिका के मनोवैज्ञानिक, पशुओं पर परीक्षण करके 'सीखने' के नियमों की खोज में लगे हुए हैं। उन्होंने सीखने के जो नियम प्रतिपादित किये हैं, उनमें सबसे अधिक मान्यता ई. एल. थार्नडाइक (E. L. Thomdike) के नियमों को दी जाती है। उसने सीखने के तीन मुख्य नियम और पाँच गौण नियम प्रतिपादित किये हैं; यथा
(अ) मुख्य नियम  (Primary Laws) —–

(i) तत्परता का नियम। 

 (ii) अभ्यास का नियम। इस नियम के दो अंग है- उपयोग और अनुपयोग के नियम। 

(iii) प्रभाव या परिणाम का नियम । 


(ब) गौंड नियम (Secondary Laws) – 

(i) बहुप्रतिक्रिया का नियम। 

(ii) अभिवृत्ति या मनोवृत्ति का नियम। 

(it) आंशिक क्रिया का नियम। 

 (IV) आत्मीकरण का नियम। 

(v) सम्बन्धित परिवर्तन का नियम । 

हम इन नियमों का क्रमबद्ध परिचय दे रहे हैं, यथा

 1. तत्परता का नियम (Law of Readiness) - 

इस नियम का अभिप्राय यह है कि यदि हम किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार या तत्पर होते हैं, तो हम उसे शीघ्र ही सीख लेते हैं। तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित रहती है। यदि बालक में गणित के प्रश्न करने की इच्छा है, तो वह उनको करता है, अन्यथा नहीं। इतना ही नहीं, तत्परता के कारण वह उनको अधिक शीघ्रता और कुशलता से करता है। तत्परता उसके ध्यान को कार्य पर केन्द्रित करने में सहायता देती है, जिसके फलस्वरूप वह उसे संपन करने में सफल होता है। भाटिया, (Bhatia, p. 210) का कथन है-"तत्परता या किसी कार्य के लिए तैयार होना,  आधा विजय कर लेना है।" 

2. अभ्यास का नियम (Law of Use or Exercise)

 अभ्यास कुशल बनाता है (Practice makes perfect) | अभ्यास करते रहते हैं, तो हम उसे सरलतापूर्वक करना सीख  जाते हैं। हम बिना अभ्यास किये साइकिल पर चढ़ने में या कोई खेल में सफ़ल नही  हो सकते हैं। कोलेसनिक  के अनुसार-"अभ्यास का किसी कार्य की पुनरावृत्ति, पुनर्विचार या अभ्यास के औचित्य को सिद्ध करता है।" 

 3. अनभ्यास का नियम (Law of Disuse)

-इस नियम का अर्थ यह है कि सीखे हुए कार्य का अभ्यास नहीं करते हैं, तो हम उसको भूल जाते हैं। अभ्यास के माध्यम से ही हम उसे स्मरण रख सकते हैं। डगलस एवं हॉलैण्ड  का कथन है-"जो कार्य बहुत समय तक किया या दोहराया नहीं जाता है, वह भूल जाता है। इसी को अनभ्यास का नियम कहते हैं।" 

4. परिणाम या सन्तोष का नियम 

(Law of Effect or Satisfaction) इस नियम के अनुसार, हम उस कार्य को सीखना चाहते हैं, जिसका परिणाम हमारे लिए हितकर होता है, या जिससे हमें सुख और सन्तोष मिलता है। यदि हमको किसी कार्य को करने परेसानी या कष्ट होता है, तो हम उसको करते या सीखते नहीं हैं। वाशबर्न (Washburne, Crow and Crow, p. 231) के अनुसार-"जब सीखने का अर्थ किसी उद्देश्य या इच्छा को सन्तुष्ट करना होता है, तब सीखने में सन्तोष का महत्वपूर्ण स्थान होता है।" 

5. बहु-प्रतिक्रिया का नियम (Law of Multiple Response)  

 इस नियम का अभिप्राय यह है कि जब हम कोई नया कार्य करना सीखते हैं, तब उसके प्रति अनेक और विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ करते हैं। दूसरे शब्दों में, हम विविध प्रकार के उपायों और विधियों का प्रयोग करके उस कार्य में सफलता प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। कुछ समय तक प्रयत्न करने के बाद हमें उस कार्य को करने की ठीक विधि या उपाय मालूम हो जाता है। 'प्रयत्न और भूल' द्वारा 'सीखने का सिद्धान्त' इसी नियम पर आधारित है। 

6. मनोवृत्ति का नियम (Law of Disposition)-

इस नियम का तात्पर्य यह है कि जिस कार्य के प्रति हमारी जैसी अभिवृत्ति या मनोवृत्ति होती है, उसी अनुपात में हम उसको सीखते हैं। यदि हम मानसिक रूप से किसी कार्य को करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो या तो हम उसे करने में असफल होते हैं, या अनेक त्रुटियाँ करते हैं या बहुत विलम्ब से करते हैं। यही कारण है कि शिक्षक, प्रेरणा देकर बालकों को नवीन ज्ञान को ग्रहण करने के लिए मानसिक रूप से तैयार करते है। 

7. आंशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity)-

इस नियम का अनुसरण करके, हम जिस कार्य को करना चाहते हैं, उसे छोटे-छोटे अंगों या भागों में विभाजित कर लेते हैं। इस प्रकार का विभाजन, कार्य को सरल और सुविधाजनक बना देता है। हम उन छोटे-छोटे अंगों को शीघ्रता और सुगमता से करके सम्पूर्ण कार्य को पूरा करते हैं। इस नियम पर ' अंश से पूर्ण की ओर' का शिक्षण का सिद्धान्त आधारित किया जाता है। शिक्षक सम्पूर्ण विषय-सामग्री को छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित करके छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता है। 


8. आत्मीकरण का नियम (Law of Assimilation)- 

इस नियम का अभिप्राय यह है कि हम जो भी नया ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसका आत्मीकरण कर लेते हैं या उसे आत्मसात् कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में, हम नवीन ज्ञान को अपने पूर्व ज्ञान का स्थायी अंग बना लेते हैं। यही कारण है कि जब शिक्षक, बालक को कोई नई बात सिखाता है, तब उसका पहले सीखी हुई बात से सम्बन्ध स्थापित कर देता है। 

9. सम्बन्धित परिवर्तन का नियम (Law of Associative Shifting) 

इस नियम का अभिप्राय है- पहले कभी की गई क्रिया को उसी के समान दूसरी परिस्थिति में उसी प्रकार करना। इसमें क्रिया का स्वरूप तो वही रहता है, पर परिस्थिति में परिवर्तन हो जाता है। यदि माँ का बच्चा मर जाता है, तो वह उसकी वस्तुओं को उसी प्रकार सीने से लगाती है, जिस प्रकार वह बच्चे को लगाती थी। प्रेमिका की अनुपस्थिति में प्रेमी उसके चित्र से उसी प्रकार बातें करता है, जिस प्रकार वह उससे करता था। 


सीखने के अन्य महत्वपूर्ण नियम 

(OTHER IMPORTANT LAWS OF LEARNING) 

1. उद्देश्य का नियम (Law of Purpose)

-इस नियम का अर्थ यह है कि यदि कोई कार्य हमारे उद्देश्य को पूरा करता है, तो हम उसे शीघ्र ही सीख लेते हैं। रायबर्न  का मत है-"व्यक्ति का किसी कार्य को करने का उद्देश्य जितना अधिक प्रबल होता है, उतना ही अधिक उसमें उस कार्य को करने की तत्परता होती है। " 

2. परिपक्वता का नियम (Law of Maturation) 

इस नियम का सार यह है कि हम किसी बात को तभी सीख सकते हैं, जब हममें उसे सीखने की शारीरिक और मानसिक परिपक्वता होती है। दस वर्ष के बालक को नक्षत्र विज्ञान की शिक्षा देना व्यर्थ है। वह इस विषय को अपनी उसी अवस्था में समझ सकता है, जब उसकी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का आवश्यक विकास हो जाय। 

3. निकटता का नियम (Law of Recency) 

इस नियम का तात्पर्य यह है कि जो कार्य, जितने निकट भूत में या कम समय पहले सीखा गया है, वह उतनी ही अधिक सरलता से फिर किया जा सकता है। 

4. अभ्यास-वितरण का नियम (Law of Distribution of Practice)

 यह नियम हमें बताता है कि किसी कार्य को लगातार सीखने के बजाय कुछ-कुछ समय के बाद थोड़ी-थोड़ी देर में सीखना अधिक अच्छा है। डगलस एवं हालैण्ड (Douglas and Holland. p. 181) के शब्दों में हम कह सकते हैं-"यदि एक व्यक्ति किसी कार्य का एक दिन में 60 या 80 मिनट तक लगातार अभ्यास न करके, 4 दिन तक रोज उसका 15 मिनट अभ्यास करे, तो वह उसे अधिक सीख सकता है।" 

5. बहु-अधिगम का नियम (Law of Multiple Learning)-

इस नियम का अर्थ स्पष्ट करते हुए रॉयबर्न (Ryburn, p. 232) ने लिखा है- "हम एक समय में केवल एक बात कभी नहीं सीखते हैं। हम सदैव बहुत-सी बातों को साथ-साथ सीखते हैं।" विद्यालय में बालक न केवल पाठ में आने वाली बातों को सीखता है, वरन् शिक्षक के चरित्र से, छात्रों की संगति से और अपने वातावरण से भी बहुत सी बातें सीखता है। 

सीखने के सिद्धांत

(THEORIES OF LEARNING) 

हिलगार्ड (Hilgard) ने अपनी पुस्तक ""थ्योरीज ऑफ लर्निंग"" (Theories of Learning) में दस से भी अधिक सीखने के सिद्धान्तों का वर्णन किया है। इनके सम्बन्ध में यह निश्चय करना कठिन है कि कौन-सा सिद्धान्त ठीक और कौन-सा गलत है। फ्रेंडसन (Frandson) ने ठीक ही लिखा है-"सिद्धान्त न तो ठीक होते हैं और न गलत। वे केवल कुछ विशेष कार्यों के लिए कम या अधिक लाभप्रद होते हैं।" इस कथन को ध्यान में रखकर हम सीखने के अधिक लाभप्रद पाँच सिद्धान्तों का वर्णन कर रहे हैं; यथा

1. थार्नडाइक का सीखने का सिद्धान्त (Thorndike's Theory of Learning) 

2. सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त (Conditioned Response Theory) 

3. प्रबलन का सिद्धान्त (Reinforcement Theory) 

4. स्किनर का सीखने का सिद्धान्त (Skinner's Theory of Learning) 

5. सूझ का सिद्धान्त (Insight Theory) 

(1) सिद्धान्त का अर्थ- 

जब व्यक्ति कोई कार्य सीखता है, तब उसके सामने एक विशेष स्थिति या उद्दीपक (Stimulus) होता है, जो उसे एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया (Response) करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार, एक विशिष्ट उद्दीपक का एक विशिष्ट प्रतिक्रिया से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, जिसे उद्दीपक प्रतिक्रिया सम्बन्ध (S-R Bond) द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। इस सम्बन्ध के फलस्वरूप, जब व्यक्ति भविष्य में उसी उद्दीपक का अनुभव करता है, तब वह उससे सम्बन्धित उसी प्रकार की प्रतिक्रिया या व्यवहार करता है। 

(2) थार्नडाइक द्वारा सिद्धान्त की व्याख्या

थार्नडाइक ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए लिखा है-"सीखना, सम्बन्ध स्थापित करना है। सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य, मनुष्य का मस्तिष्क करता है।" ( Learning is connecting. The mind is man's connection system. ) 

थार्नडाइक की धारणा है-सीखने की प्रक्रिया में शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का विभिन्न मात्राओं में सम्बन्ध होना आवश्यक है। यह सम्बन्ध विशिष्ट उद्दीपकों

सीखने के सिद्धांत

(THEORIES OF LEARNING) 

1. थार्नडाइक का सीखने का सिद्धान्त (THORNDIKE'S THEORY OF LEARNING) 

ई. एल. थार्नडाइक (E. L. Thorndike) ने 1913 में प्रकाशित होने वाली अपनी पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Psychology) में सीखने का एक नवीन सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है; 

थर्नडाइक की धारणा है-सीखने की प्रक्रिया में शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का विभिन्न मात्राओं में सम्बन्ध होना आवश्यक है। यह सम्बन्ध विशिष्ट उद्दीपकों और विशिष्ट प्रतिक्रियाओं के कारण स्नायुमण्डल (Nervous System) में स्थापित होता है। इस सम्बन्ध की स्थापना, सीखने की आधारभूत शर्त है। यह सम्बन्ध अनेक प्रकार का हो सकता है। इस पर प्रकाश डालते हुए बिगी एवं हण्ट (Bigge and Hunt) (p. 260) ने लिखा है-"सीखने की प्रक्रिया में किसी मानसिक क्रिया का शारीरिक क्रिया से, शारीरिक क्रिया का मानसिक क्रिया से, मानसिक क्रिया का मानसिक क्रिया से या, शारीरिक क्रिया का शारीरिक क्रिया से सम्बन्ध होना आवश्यक है।" 

(3) थार्न दायक का प्रयोग ----थार्नडाइक ने अपने सीखने के सिद्धान्त की परीक्षा करने के लिए अनेक पशुओं और बिल्लियों( cat) पर प्रयोग किए। उसने अपने एक प्रयोग में एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बंद कर दिया। पिजड़े का दरवाजा एक खटके के दबने से खुलता था।. उसके बाहर भोजन रख दिया। बिल्ली के लिए भोजन उद्दीपक था। उद्दीपक के कारण उसमें प्रतिक्रिया आरम्भ हुई। उसने अनेक प्रकार से बाहर निकलने का प्रयत्न किया। एक बार संयोग से उसका पंजा खटके पर पड़ गया। फलस्वरूप, वह दब गया और दरवाजा खुल गया। थार्नडाइक ने इस प्रयोग को अनेक बार दोहराया। अन्त में, एक समय ऐसा आ गया, जब बिल्ली किसी प्रकार की भूल न करके खटके को दबाकर पिंजड़े का दरवाजा खोलने लगी। इस प्रकार उद्दीपक और प्रतिक्रिया में सम्बन्ध (S-R Bond) स्थापित हो गया। थार्नडाइक (Thorndike) ने सम्बन्धवाद के सिद्धान्त सीखने के क्षेत्र में प्रयास तथा त्रुटि (Trial and Error) को विशेष महत्व दिया है। प्रयास एवं त्रुटि के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि जब हम किसी काम को करने में त्रुटि या भूल करते हैं और बार-बार प्रयास करके त्रुटियों की संख्या कम या समाप्त की जाती है तो यह स्थिति प्रयास एवं त्रुटि द्वारा सीखना कहलाती है। वुडवर्थ (Woodworth, p. 493) ने लिखा है-"प्रयास एवं त्रुटि में किसी कार्य को करने के लिये अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं जिनमें अधिकांश गलत होते हैं।" 


(4) थार्नडाइक का प्रयोग (Experiment by Thorndike) प्रयास तथा त्रुटि के सिद्धान्त के प्रवर्तक थार्नडाइक ने एक भूखी बिल्ली को पिजड़े में बन्द करके यह प्रयोग किया। भूखी बिल्ली पिंजड़े के बाहर रखा मछली का टुकड़ा प्राप्त करने हेतु, पिंजड़े से बाहर आने के अनेक त्रुटिपूर्ण प्रयास करती रही और अंततः वह पिंजड़ा खोलना सीख गई। बिल्ली के समान बालक भी चलना, जूते पहनना, चम्मच से खाना आदि क्रियाएँ सीखते हैं। वयस्क लोग भी ड्राइविंग, टैनिस, क्रिकेट आदि खेलना, टाई की गांठ बाँधना इसी सिद्धान्त अनुसार सीखते हैं। 

(5) सिधांत का शिक्षा में महत्व   (Importance in Education)-- शिक्षा में प्रयास तथा त्रुटि का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस सिद्धान्त का महत्व इस प्रकार है

(i) बड़े तथा मन्द बुद्धि बालकों के लिए यह सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी है।

 (ii) इस सिद्धान्त से बालकों में धैर्य तथा परिश्रम के गुणों का विकास होता है।

 (iii) बालकों में परिश्रम के प्रति आशा का संचार करता है। 

(iv) इस सिद्धान्त के कार्य की धारणाएँ (Concepts) स्पष्ट हो जाती है। 

(v) अनुभवों का लाभ उठाने की क्षमता का विकास होता है। 

(vi) को एवं को (Crow and Crow) के अनुसार- "गणित, विज्ञान तथा समाजशास्त्र जैसे गम्भीर चिन्तन वाले विषयों को सीखने में यह सिद्धान्त उपयोगी है।"

 (vii) गैरिसन व अन्य (Garrison and Others) के अनुसार, इस सिद्धान्त का सीखने की प्रक्रिया में विशेष महत्व है। समस्या समाधान पर यह बल देता है। 

(viii) कोलसनिक (Kolesnik) के शब्दों में-लिखना, पढ़ना, गणित सिखाने में यह सिद्धान्त उपयोगी है। बीसवीं सदी में अमरीकी शिक्षा पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा है। 


(6) सिधांत के गुण और विशेषताये --  सम्बन्धवाद्' या 'उद्दीपक प्रतिक्रिया' सिद्धान्त की विशेषताएँ निम्नांकित हैं

यह सिद्धान्त, उद्दीपक और प्रतिक्रिया के सम्बन्ध को सीखने का आधारभूत कारण मानता है। 

(ii) यह सिद्धान्त, शिक्षण में प्रेरणा (motivation)को विशेष महत्व देता है। 

(iii) यह सिद्धान्त, इस बात पर बल देता है कि सीखना एक असम्बद्ध प्रक्रिया नहीं है, वरन् प्रत्यक्ष, गत्यात्मक, ज्ञानात्मक और भावात्मक अंगों का पुंज है।

(iv) इस सिद्धान्त के अनुसार, जो व्यक्ति उद्दीपकों और प्रतिक्रियाओं में जितने अधिक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, उतना ही अधिक बुद्धिमान वह हो जाता है। इस सिद्धान्त के आधार पर थार्नडाइक ने सीखने के तीन मुख्य नियम प्रतिपादित किये-तत्परता का नियम, अभ्यास का नियम, प्रभाव या परिणाम का नियम। 


(7) सिधांत के दोष--  -थार्नडाइक के इस सिद्धान्त में निम्नलिखित स्पष्ट दोष हैं।

(!)यह सिद्धान्त व्यर्थ के प्रयत्नों पर बल देता है, जिनके कारण सीखने में बहुत समय नष्ट होता है। 

(ii) यह सिद्धान्त किसी क्रिया को सीखने की विधि को बताता है, पर उसे सीखने का कारण नहीं बताता है। 

(iii) यह सिद्धान्त, की क्रिया को यांत्रिक बना देता है और मानव के विवेक, की अवहेलना करता है। 

(iv) जब एक कार्य को एक विशिष्ट विधि से एक ही बार में सीखा जा सकता है, तब उसका बार-बार प्रयास करके सीखना व्यर्थ है। 



2. प्रबलन - सिधांत ( reinforcement theory) 

दोस्तों थार्न डाएक के बाद जो सबसे महत्व पूर्ण सिद्धांत सामने आया वह है - "हल का prabalan सिद्धांत"

(REINFORCEMENT THEORY) "प्रबलन-सिद्धान्त" का प्रतिपादन सी. एल. हल (C. L. Hull)नामक अमरीकी मनोवैज्ञानिक ने 1915 में अपनी पुस्तक "Principles of Behaviour" में किया था। उसका यह सिद्धान्त थार्नडाइक (Thorndike) और पावलव (Pavloy) के सिद्धान्तों पर आधारित 

(1) सिद्धान्त का अर्थ-हल (Hell) के सीखने के सिद्धान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्टोन्स ने लिखा है-सीखने का आधार आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया है। यदि कोई कार्य, पशु या मानव की किसी आवश्यकता को पूर्ण करता है, तो वह उसको सीख लेता है। 'आवश्यकता की पूर्ति' (Need satisfaction) के लिए हल (Hall) ने 'आवश्यकता की कमी' (Need Reduction) का प्रयोग किया है। 

'आवश्यकता की पूर्ति' --    किस प्रकार सीखने की प्रक्रिया का आधार है, इसको स्टोन्स (Stones) ने एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। एक भूखा पशु पिंजड़े में बन्द है। पिंजड़े के बाहर भोजन रखा है। पिंजड़ा खटके को दबाने से खुलता है। अपनी भूख को सन्तुष्ट करने के लिए पशु क्रियाशील होता है। भोजन उसकी क्रियाशीलता को बलवती बनाता है अर्थात् प्रबलन (Reinforce) करता है। अतः वह पिंजड़े से बाहर निकलने के लिए सभी प्रकार के प्रयास करता है। अपने प्रयासों के फलस्वरूप वह खटके को दबाकर बाहर निकलना सीख जाता है। - इस प्रकार, भोजन की आवश्यकता को सन्तुष्ट करने की प्रक्रिया द्वारा वह पिंजड़े को खोलना सीख जाता है। सीखने का आधार यहीं है। हल (Hull) का कथन है- "सीखना, आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया के द्वारा होता है।" 

"Learning takes place through a process of need reduction

   आओ मिलकर सीखें -- अपनी प्रेरणादायक डायरी को। 


(2) सिद्धान्त के गुण तथा विशेषताएँ-हल (Hull) के सीखने के सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं

1. आदर्श व सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त (Ideal and Most Elegant Theory) स्किनर ने इस सिद्धान्त को वैज्ञानिक होने के कारण आदर्श सिद्धान्त माना है। और लिखा है-"अब तक सीखने के जितने भी सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं, उनमें यह सर्वश्रेष्ठ है। 

2. चालक-न्यूनता सिद्धान्त (Drive Reduction Theory) स्किनरके अनुसार-"हल का सीखने का सिद्धान्त चालक-न्यूनता का सिद्धान्त है।" (“Hull's theory of learning is a drive-reduction theory.") 

हल (Hull) का कहना है कि जब प्राणी की कोई आवश्यकता पूर्ण नहीं होती है, तब उसमें असंतुलन उत्पन्न हो जाता है; उदाहरणार्थ- भोजन की आवश्यकता पूर्ण न होने पर प्राणी में तनाव उत्पन्न हो जाता है, जिसके फलस्वरूप उसकी दशा असंतुलित हो जाती है। साथ ही, भूख का चालक (Drive) उसे भोजन प्राप्त करने के लिए क्रियाशील बना देता है। कुछ समय के बाद वह ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जब उसकी भोजन की आवश्यकता सन्तुष्ट हो जाती है। इसके फलस्वरूप, भूख के चालक की शक्ति कम हो जाती है। 

3. उद्दीपक प्रतिक्रिया सिद्धान्त (S. R. Theory) स्किनर (Skinner) के अनुसार- "हल का सिद्धान्त, उद्दीपक-प्रतिक्रिया का सिद्धान्त है।” (“Hull's Theory is a stimulus-response theory.”)। भूख या भोजन-उद्दीपक का कार्य करता है, जिसके कारण व्यक्ति विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियायें करता है। 

4. प्राथमिक व द्वितीयक प्रबलन (Primary and Secondary Reinforcement) - हल (Hull) ने प्रबलन के दो रूप बताये हैं, जो विभिन्न अवस्थाओं में दृष्टिगोचर होते हैं। भोजन भूख के चालक को प्रबल बनाता है। यह अवस्था प्राथमिक प्रबलन (Primary Reinforcement) की है। पर भूख उस समय तक शान्त नहीं होती है, जब तक भोजन खा नहीं लिया जाता है। अतः भोजन खाने से पहले भूख का चालक फिर प्रबल हो जाता है। यह अवस्था द्वितीयक. प्रबलन (Secondary Reinforcement) की है। 

5. प्रेरणा पर बल (Stress on Motivation) यह सिद्धान्त बालकों के शिक्षण में प्रेरणा पर अत्यधिक बल देता है, क्योंकि बालकों को प्रेरित करके ही उनके ज्ञान की आवश्यकता को पूर्ण किया जा सकता है। 

6. बालकों की क्रियाओं व आवश्यकताओं का सम्बन्ध (Association of Children's Activities and Needs) 

इस सिद्धान्त की सबसे महत्वपूर्ण देन यह है कि यह बालकों की क्रियाओं और आवश्यकताओं में सम्बन्ध स्थापित किये जाने पर बल देता है। उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, उनकी क्रियाओं का वास्तविक जीवन से सम्बन्ध होना चाहिए। आधुनिक शिक्षा इन दोनों तथ्यों को स्वीकार करती है। 

(3) निष्कर्ष- आज तक प्रतिपादित किये जाने वाले सीखने के सिद्धान्तों में हल (Hull) के सिद्धान्त को सर्वोत्कृष्ट स्वीकार करते हुए स्किनर (Skinner, B-p. 406) ने लिखा है-"हल का कहना है कि सीखने का कारण किसी आवश्यकता का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूर्ण होना होता है। अतः कुछ दृष्टियों से आधुनिक शिक्षा को हल के सिद्धान्त में एक सैद्धान्तिक आधार मिल जाता है।" 


Blog -- प्रेरणा डायरी

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Writer -- केदार लाल ( k. S. Ligree)