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शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

छोटी-छोटी प्रेरणादायक कहानियाँ ( short motivational storyes)

 दोस्तों नमस्कार। आज की प्रेरणा दायक डायरी की पोस्ट आधारित है छोटी-choti motivational स्टोरी पर जिन्हें पढ़कर आप निश्चित रूप से Motivate होंगे तो आईये पढ़ते है कुछ Motivational story ----


1. सच्चाई कि विजय
( प्रेरणादायक लघु कहानी) 


जैसे ही त्योहारों के मौसम शुरू होते हैं मेरा बेटा उनसे जुड़ी कहानियां मुझसे सुनता रहता है।त्योहारों कि कहानियाँ सुनना उसे बड़ा अच्छा लगता है। अभी थोड़े दिन पहले ही मैंने उसे 
 दशहरे से जुड़ी कहानी सुनाई और उसे समझाया '"बुराई रूपी रावण चाहे कितना भी शक्तिशाली हो उसे मजबूत मनोबल वाले श्रीराम से हारना ही पड़ता है।" और आज मेरी यही बात वह सामने वाले भैया को समझा रहा था। पिछले साल ही हमारे घर के सामने वाले घर में एक परिवार आकर रहने लगा। बहुत ही अच्छे लोग हैं। मोहल्ले में हमेशा सबकी मदद के लिए तैयार रहते हैं। दोनों पति-पत्नी मीठे व्यवहार और एक निश्चल मुस्कान के धनी हैं। दोनों अपने बच्चों को पढ़ाने के मकसद से इस शहर में आए हैं। 



           प्रेरणा दायक डायरी-- "आपकी खुशहाली"



मेरा बेटा भी अक्सर सामने वाले 
भैया से पढ़ाई से जुड़ी सलाह लेता रहता है। सामने वाले भैया वैसे तो हर मायने में बहुत ही अच्छे हैं, परंतु उन्हें गुटखा खाने की बुरी लत थी। मैं कभी उनके अच्छे व्यवहार को देखकर उनसे पूछ नहीं पाई कि उन्हें यह लत कैसे लगी। परंतु वो आज मेरे बेटे को बता रहे थे कि वह आर्मी के उच्च पद से रिटायर्ड है। परंतु रिटायरमेंट के बाद उन्हें यह गुटखा खाने की बुरी लत लग गई, और वो यह आदत चाह कर भी छोड़ नहीं पा रहे हैं। 
उनके ऐसा कहते ही मेरे बेटे ने  उसे दशहरे से जुड़ी कहानी सुनाई और उसे समझाया। ""बुराई रूपी रावण चाहे कितना भी शक्तिशाली हो उसे मजबूत मनोबल वाले श्रीराम से हारना ही पड़ता है।""  आज मेरी यही बात वह सामने वाले भैया को समझा रहा था।और तुरंत मेरे द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान उन्हें दे दिया। उसने कहा, 'अंकल नहीं! आप चाहें तो यह आदत छोड़ सकते हैं। बुराई चाहे कितनी भी शक्तिशाली हो उसे मजबूत मनोबल वाली अच्छाई से हारना ही पड़ता है। और बुराई पर अच्छाई की जीत सिद्ध करना ही तो विजयादशमी है। बेटा मेरी तरफ देख कर मुस्कुराते हुए बोला, 'क्यों मा मैंने सही कहा ना?' मैंने हंसते हुए कहा, 'हां बिल्कुल सही कहा। बेटे के जाने के बाद मैंने भैया को कहा'प्लीज भैया इसकी किसी बात का बुरा मत मानिएगा बच्चा है नई-नई कहानी सुनी है। इसलिए आपको यह । कह दिया।' भैया मुस्कुराते हुए चले गए। उसके बहुत दिनों तक सामने वाले भैया भाभी के यहां जाना नहीं हुआ। और ना ही वो आए। कभी कभार आते जाते. दिख जाते थे, तो एक नमस्ते भरी मुस्कुराहट पर बात खत्म हो जाती थी। आज मोहल्ले में रावण दहन का कार्यक्रम रखा गया था। शाम होते-होते सब वहां इकट्ठे हो गए। 
में सामने वाली भाभी से बात कर ही रही थी तभी भंगा आ गए। मैंने देखा सफेद कुर्ता पायजामा पहने भैया आज कुछ अलग लग रहे थे। मैंने पूछ ही लिया, 'भैया आज आप इतना अलग "क्यो लग रहे हो ?' 
भाभी ने हंसते हुए तुरंत कहा, 'अलग लग रहे हैं क्योंकि आज मुंह में गुटखा नहीं है। बहुत कठिन रहा इनके लिए, पर इन्होंने गुटखा खाना छोड़ दिया है। मेरे आश्चर्य और खुशी का ठिकाना नहीं था। 
मैं कुछ बोल पाती उससे पहले ही भैया बोल पड़े, 'अगर मैं गुटखा खाना नहीं छोड़ता तो बेटे की नजर में श्रीराम हार नहीं जाते। और श्रीराम को हारने कैसे दिया जा सकता है। हारना रावण को ही पड़ेगा।' साधारण मनुष्य का अपनी इच्छाशक्ति के बल पर बुराई को हराना ही तो रावण दहन है और आज मैं सच में एक साधारण मनुष्य में श्रीराम का स्वरूप देख ररही थी। 



2. कठिन परिश्रम
( प्रेरणा दायक लघु कहानी) 


बात उस  समय कि है जब मैं कक्षा दसवीं की परीक्षा दे रही थी। मेरी बहुत अच्छी तैयारी होने के बावजूद भी मुझे बहुत घबराहट हो रही थी। मेरे अंदर परिक्षा को लेकर एक डर बन हुआ था। मेरे अंदर भय व्याप्त था। मेरे मम्मी पापा ने मुझे समझाते हुए कहा कि तेरी तो बहुत अच्छी तैयारी है फिर इतना क्यों घबरा रही है। तूने आज तक स्वयं अध्ययन करके इतने अच्छे अंक प्राप्त किए हैं। मैंने कहा, पापा बोर्ड की परीक्षा से डर लग रहा है। पापा ने कहा, जैसे और एग्जाम होते हैं वैसे ही बोर्ड के एग्जाम होते हैं। इतना डरने की जरूरत नहीं है। मेरा डर दूर करने के लिए पापा ने एक योजना बनाई। पापा ने बोर्ड की परीक्षा शुरू होने से पहले मुझे एक बहुत सुंदर अच्छा चलने वाला पेन लाकर दिया और कहा कि यह जादुई पेन है आज तक मैंने इस पेन से जो भी काम किया है उसमें मुझे हमेशा सफलता प्राप्त हुई है। तुझे घबराने कि कोई जरूरत नहीं है। इस पैन पर माता सरस्वती विराजमान रहती है। तेरा exam बहुत अच्छा होगा। मुझे अपने पापा की कही हुई बात पर पूरा विश्वास था। मैं उस पेन को लेकर बड़े आत्मविश्वास के साथ परीक्षा देने चली गई। सारे पेपर बहुत अच्छे हुए। मैं बहुत खुश थी। मैंने उस पेन को संभाल कर रख दिया। परीक्षा का नतीजा घोषित हुआ। मैंने दसवीं कक्षा में 95 फीसदी अंक हासिल किए। मैंने  पापा से कहा पापा आपके दिए गए जादुई पेन की वजह मैंने इतने अच्छे अंक प्राप्त किए हैं। पापा ने हंसते हुए मुझसे कहा, बेटा यह अंक तुम्हारी मेहनत की वजह से आए हैं यह पेन तो साधारण पेन है। मैंने तो इसे पास की दुकान से खरीदा है। मैने तुमारा confidence बड़ाने के लिए इसे जादुई पैन बताया था। परिवार के सभी लोग मुस्कुराने लगे। सब ने कहा, सफलता कड़ी मेहनत से प्राप्त की जाती है किसी अंधविश्वास से नहीं।



3. सफ़लता 
( Short motivational stories) 




    प्रेरणा डायरी -  "सफ़लता की ओर एक कदम"



राजस्थान राज्य के करौली जिले के ध्रुवघटा आश्रम में बहुत सारे शिष्य अपने गुरु के साथ रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे।  यहाँ पठन-पाठन का बड़ा अच्छा माहौल था। आश्रम बेहद रामणिक और प्राकृतिक दृस्यो से भरपूर था। गुरु प्रेमानंद  शिष्यों को सफलता पर बहुत से पाठ पढ़ा चुके थे। पर आज वो चाहते थे कि साक्षात् प्रकृति से कोई उदाहरण देकर छात्रों को बताए ताकि उनके दिमाग में बात ठीक  से जमे । इसी विचार से एक दिन सभी शिष्यों को लेकर जंगल के भ्रमण पर निकल गये, और तरह-तरह के पेड़-पौधो, फल- फूल वनस्पतियों कि जानकारी अपने शिष्यों को देने लगे। तभी एक शिष्य कैले के पेड़ को देखकर आश्चर्य से बोला---गुरुजी...! '"इस केले के पेड़ कि पर, एक ही आकार के दो केले है, पर एक पका हुआ है, जबकि दूसरा हरा एवं कचा है.....ऐसा क्यो गुरुदेव ....?? 
 
गुकदेव बड़े ही ज्ञानी पुरुष थे। वो समझ गये कि सफलत कि बात समझाने वाला प्राकृतिक उदाहरण मिल गया। यह सोचकर उनके चहरे पर एक मीठी मुस्कुराहट आयी इसके बाद उन्होंने इधर-उधर घूम रहे अपने सभी शिष्यों को अपने पास बुलाया और बोले -- ""प्यारे शिष्यो, केले के इन दो फलों के जरिये कुदरत (प्रकृति) हमें ये संदेश दे रही है कि अगर हमारे साथी को सफलता मिल गई है, और हमें नहीं मिली है, तो  इसका मतलब कदापि यह नहीं  है, कि हम नाकाम या असफल है । जिस तरह एक ही पेड़ का एक केला पक गया अर्थात उसे सफलता मिल गई जबकि दूसरा अभी कच्छा है। असफल है।उसके पकने का समय आ रहा है। ठीक वैसे ही आपके कामयाब साथी को देखकर कभी ये मत सोचना कि आप नाकामयाब है, क्योंकि आपकी कामयाबी का समय भी जरूर आयेगा | बस आपको धैर्य, लगन और परिश्रम के साथ अपने आने वाले "सफल" समय कि प्रतिक्षा करनी चाहीए । इस फल के जरिये प्रक्रति और  हमें यही संदेश दे रहे है। इस उदाहरण को सदेव अपने मस्तिस्क में जिन्दा रखना, आपको कभी भी असफलता रूपी डर नहीं सतायेगा  ।। 



4. नमक का दारोगा । 
 
( ईमानदारी पर लिखी गई एक अदभुत कहानी ---  यह कहानी उस समय की है जब भारत पर अंग्रेजों का शासन था और उन्होंने नमक बनाने पर पाबंदी लगा दी थी। उसी नमक कानून को तोड़ने के लिए महात्मा गांधी सुप्रसिद्ध दांडी यात्रा पर 12 मार्च 1930 को दांडी के लिए निकले थे। मैं खुद इस कहानी को ईमानदारी पर लिखी गई प्रेमचंद जी कि श्रेष्ठ रचना/कहानी मानता हु। ) 

---   जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध* हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था। यह वह समय था जब अंगरेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था । प्रेम की कथाएं और शृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसीदां लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे। मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरहकथा समाप्त करके सीरी और फरहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले। उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे, "बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियां हैं, वे घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूं, न मालूम कब गिर पडूं! अब तुम्हीं घर के मालिक मुख्तार हो । नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूंढ़ना जहां कुछ ऊपरी आय हो । मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान् हो, तुम्हें क्या समझाऊं। इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है। लेकिन बेगरज को दांव पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बांध लो। यह मेरी जन्म भर की कमाई है।" 
इस उपदेश के बाद पिता जी ने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल खड़े हुए। इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुद्धि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलंबन ही अपना सहायक था। लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गये। वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था । वृद्ध मुंशी जी को सुख-संवाद मिला तो फूले न समाये । महाजन कुछ नरम पड़े, पड़ोसियों के हृदय में शूल उठने लगे। 

दो 

जाड़े के दिन थे और रात का समय। नमक के सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुंशी वंशीधर को यहां आये अभी छह महीनों से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोड़े समय में ही उन्होंने अपनी कार्यकुशलता और उत्तम आचार से अफसरों को मोहित कर लिया था। अफसर लोग उन पर बहुत विश्वास करने लगे। नमक के दफ्तर एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था। दारोगा जी किवाड़ बंद किए मीठी नींद सो रहे थे। अचानक आंख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाड़ियों की गड़गड़ाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनाई दिया। उठ बैठे। इतनी रात गये गाड़ियां क्यों नदी के पार जाती हैं? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है। तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया। वरदी पहनी, तमंचा जेब में रखा और बात की बात में घोड़ा बढ़ाये हुए पुल पर आ पहुंचे। गाड़ियों की एक लंबी कतार पुल के पार जाती देखी। डांटकर पूछा, 
“किसकी 
गाड़ियां हैं?" 

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा। आदमियों में कुछ कानाफूसी हुई, तब आगे वाले ने कहा, "पंडित अलोपीदीन की।” 
"कौन पंडित अलोपीदीन !" “दातागंज के ।” 
मुंशी वंशीधर चौंके। पंडित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे। लाखों रुपये का लेन-देन करते थे, इधर छोटे से बड़े कौन ऐसे थे जो उनके ऋणी न हों। व्यापार भी बड़ा लंबा-चौड़ा था। बड़े चलते-पुरजे आदमी थे। अंगरेज अफसर उनके इलाके में शिकार खेलने आते और उनके मेहमान होते। बारहों मास सदाव्रत चलता था। मुंशीजी ने पूछा, “गाड़ियां कहां जायेंगी?” उत्तर मिला, “कानपुर।" लेकिन इस प्रश्न पर कि इनमें क्या है, सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का संदेह और भी बढ़ा। कुछ देर तक उत्तर की बाट देखकर वह जोर से बोले, "क्या गूंगे हो गये हो ? हम पूछते हैं, इनमें क्या लदा है?" 
जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोड़े को एक गाड़ी से मिलाकर बोरे को टटोला । भ्रम दूर हो गया। यह नमक के ढेले थे। 

तीन 

पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार, कुछ सोते, कुछ जागते चले आते थे। अचानक कई गाड़ीवानों ने घबराये हुए आकर जगाया और बोले, "महाराज! दारोगा ने गाड़ियां रोक दी हैं और घाट पर खड़े आपको बुलाते हैं।” 
पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था । न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं नचाती हैं। लेटे ही लेटे गर्व से बोले, “चलो हम आते हैं।" यह कहकर पंडित जी ने बड़ी निश्चिंतता से पान के बीड़े लगाकर खाये। फिर लिहाफ ओढ़े हुए दारोगा के पास आकर बोले, "बाबूजी आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ कि गाड़ियां रोक दी गयीं। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए।" 
वंशीधर रुखाई से बोले, “सरकारी हुक्म!" 
पं. अलोपीदीन ने हंसकर कहा, "हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधर से जायें और इस घाट के देवता को भेंट न चढ़ावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था।" वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ प्रभाव न पड़ा। ईमानदारी की नयी उमंग थी। कड़ककर बोले, "हम उन नमकहरामों में नहीं हैं जो कौड़ियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपका कायदे के अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुर्सत नहीं है। जमादार बदलूसिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, हुक्म देता हूं।" 
पं. अलोपीदीन स्तंभित हो गये। गाड़ीवानों में हलचल मच गयी। पंडित जी के जीवन में कदाचित् यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ीं। बदलूसिंह आगे बढ़ा, किंतु रौब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड़ सके। पंडित जी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था | विचार किया कि यह अभी उद्दंड लड़का है। माया-मोह के जाल में अभी नहीं पड़ा। अल्हड़ है, झिझकता है। बहुत दीनभाव से बोले, "बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जायेंगे। इज्जत धूल में मिल जायेगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आयेगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोड़े ही हैं!" 





वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा, "हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते।” अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन-ऐश्वर्य को कड़ी चोट लगी। किंतु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति' का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले, “लाला जी, एक हजार के नोट बाबू साहब की भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।" 
वंशीधर ने गरम होकर कहा, “एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।" 
धर्म की इस बुद्धिहीन दृढ़ता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुंझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल-उछलकर आक्रमण करने शुरू किये। एक से पांच, पांच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हजार तक नौबत पहुंची, किंतु धर्म अलौकिक वीरता के साथ इस बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भांति अटल, अविचलित खड़ा था। 
अलोपीदीन निराश होकर बोले, “अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।" 
वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलूसिंह मन में दारोगा जी को गालियां देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढ़ा। पंडित जी घबराकर दो-तीन कदम पीछे हट गये। अत्यंत दीनता से बोले, "बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने को तैयार हूं।" “असंभव बात है।" 
““तीस हजार पर।" 
“किसी तरह भी संभव नहीं।" 
"क्या चालीस हजार पर भी नहीं ?" 
“चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी असंभव है।" “बदलूसिंह, इस आदमी को अभी हिरासत में ले लो। अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।" 
धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकड़ियां लिए हुए अपनी तरफ आते देखा। चारों ओर निराश और कातर दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद मूर्च्छित होकर गिर पड़े। 

चार 

दुनिया सोती थी पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सबके मुंह से यही बात सुनाई देती थी । जिसे देखिए वही पंडित जी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया । पानी को दूध के नाम से बेचनेवाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफर करनेवाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनानेवाले सेठ और साहूकार यह सब के सब देवताओं की भांति गर्दनें चला रहे थे। जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियां, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गर्दन झुकाये अदालत की तरफ चले तो सारे शहर में हलचल मच गयी। मेलों में कदाचित् आंखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा। 
किंतु अदालत में पहुंचने की देर थी। पंडित अलोपीदीन इस अगाध वन में के सिंह थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना मोल के गुलाम थे। उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ से दौड़े। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने यह कर्म किया बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आये। ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आये । प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था। बड़ी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गयी । न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र । गवाह थे, किंतु लोभ से डावांडोल। यहां तक कि मुंशी जी को न्याय भी अपनी ओर कुछ खिंचा हुआ दीख पड़ता था। वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहां पक्षपात हो, वहां न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा- पंडित अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गये प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक (भ्रामक) हैं। वह एक बड़े भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोड़े लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो। यद्यपि नमक के दारोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं, लेकिन यह बड़े खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झेलना पड़ा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक से मुकदमे की बढ़ी हुई नमकहलाली ने उसके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए। 
वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पड़े। पंडित अलोपीदीन मुस्कराते हुए बाहर निकले। स्वजन बांधवों ने रुपयों की लूट की। उदारता का सागर उमड़ पड़ा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी। जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर उनके ऊपर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक झुक कर सलाम किये। किंतु इस समय एक-एक कटु वाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्ज्वलित कर रहा था। कदाचित् इस मुकदमे में सफल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते। आज उन्हें संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वत्ता, लंबी-चौड़ी उपाधियां, बड़ी-बड़ी दाढ़ियां, ढीले चोगे, एक भी सच्चे आदर का पात्र नहीं है। 


वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुंचा। कार्य-परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्नहृदय, शोक और खेद से व्यथित घर को चले । बूढ़े मुंशी जी तो पहले ही कुड़बुड़ा रहे थे कि चलते-चलते इस लड़के को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो लोगों के तगादे सहें, बुढ़ापे में भगत बनकर बैठें और वहां बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे। लेकिन काम किया, दिल खोल कर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे अंधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दीया जलायेंगे। खेद है ऐसी समझ पर ! पढ़ना-लिखना सब अकारथ' गया। इसके थोड़े ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस दुरावस्था में घर पहुंचे और बूढ़े पिता जी ने समाचार सुना सिर पीट लिया। बोले, "जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लूं।" बहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे । कोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर वहां से टल न जाते जो अवश्य ही यह लोध विकट रूप धारण करता। वृद्धा माता को भी दुख हुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएं मिट्टी में मिल गयीं। पत्नी ने तो कई दिन तक सीधे मुंह बात भी नहीं की। 
इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया। संध्या का समय था । बूढ़े मुंशी जी बैठे राम-नाम की माला जप रहे थे। इसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिये बैलों की जोड़ी, उनकी गर्दनों में नीले धागे, सींगें पीतल से जड़ी हुईं। कई नौकर लाठियां कंधों पर रखे साथ थे। मुंशी जी अगवानी को दौड़े। देखा तो पंडित अलोपीदीन हैं। झुककर दंडवत् की और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे, "हमारा भाग्य उदय हुआ जो आपके चरण इस द्वार पर आये। आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन-सा मुंह दिखावें, मुंह में तो कालिख लगी हुई है। किंतु क्या करें, लड़का अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्यों मुंह छिपाना पड़ता ? श्वर निस्संतान चाहे रखे पर ऐसी संतान न 
दे।" 

अलोपीदीन ने कहा, "नहीं भाई साहब, ऐसा न कहिए।" 
मुंशी जी ने चकित होकर कहा, “ऐसी संतान को और क्या कहूं।" अलोपीदीन ने वात्सल्यपूर्ण स्वर में कहा, "कुलतिलक और पुरखों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें?" 
पं. अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा, "दारोगा जी, इसे खुशामद न समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की जरूरत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार-बल से मुझे अपनी हिरासत में लिया था, किंतु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में आया हूं। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पड़ा, किंतु मुझे परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड़ दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूं।" 
वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठ कर सत्कार किया, किंतु स्वाभिमान सहित समझ गये कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आये हैं। क्षमा प्रार्थना की चेष्टा नहीं की, वरन् उन्हें अपने पिता की यह ठकुरसुहाती की बात असह्य-सी प्रतीत हुई। पर पंडित जी की बातें सुनीं तो मन की मैल मिट गयी। पंडित जी की ओर उड़ती हुई दृष्टि से देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शर्माते हुए बोले, "यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए। मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूं। जो आज्ञा होगी, वह मेरे सिर-माथे पर।" 
अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा, "नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार की थी, किंतु आज स्वीकार करनी पड़ेगी।" 
वंशीधर बोले, "मैं किस योग्य हूं, किंतु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी।" 
अलोपीदीन ने एक स्टांप लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले, "इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने हस्ताक्षर कर दीजिए। मैं ब्राह्मण हूं, जब तक यह सवाल पूरा न कीजिएगा, द्वार न हटूंगा। 
मुंशी वंशीधर ने उस कागज को पढ़ा तो कृतज्ञता से आंखों में आंसू भर आये। पंडित अलोपीदीन ने उनको अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियत किया था। छह हजार वार्षिक वेतन के अतिरिक्त रोजाना खर्च अलग, सवारी के लिए घोड़ा, रहने को बंगला, नौकर-चाकर मुफ्त। कंपित स्वर में बोले, "पंडित जी, मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपकी उदारता की प्रशंसा कर सकूं। किंतु ऐसे उच्च पद के योग्य नहीं हूं।
अलोपीदीन हंसकर बोले, "मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है। 
वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा, "यों मैं आपका दास हूं। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। किंतु मुझमें न विद्या है, न बुद्धि, न वह स्वभाव जो इन त्रुटियों की पूर्ति कर देता है। ऐसे महान् कार्य के लिए एक बड़े मर्मज्ञ, अनुभवी मनुष्य की जरूरत है।" 
अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ देकर बोले, "न मुझे विद्वत्ता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न कार्यकुशलता की। इन गुणों के महत्व का परिचय खूब पा चुका हूं। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया है जिसके सामने योग्यता और विद्वत्ता की चमक फीकी पड़ जाती है। यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए, दस्तखत कर दीजिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर, परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाये रखे!” 
वंशीधर की आंखें डबडबा आयीं। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडित जी की ओर भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखा और कांपते हुए हाथ से मैनेजरी पर हस्ताक्षर कर दिये । 
अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले लगा लिया । 


5. घमंडी साधू


विदिशा नगरी में एक साधू रहता था। उसकी लम्बी सफेद दाढ़ी, गेरुवे वस्त्रों और कमंडल के कारण नगरवासी उसका सम्मान करते। वह जिस घर के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो जाता वहां सभी प्राणी उसके चरण छूते। 
धीरे-धीरे साधू घमण्डी होता चला गया। उसे लगने लगा कि उसके अंदर इतनी महान शक्तियां हैं जिसके कारण सारे नगरवासी उसका सम्मान करते और उससे डरते हैं। 
एक दिन वह साधु एक गांव से गुजर रहा था। वहां दो मेढ़ों की लड़ाई देखने के लिए भारी भीड़ जमा थी। 
साधू पत्थर के एक चबूतरे पर जाकर बैठ गया। साधू ने कई बार प्रयास किया कि भीड़ का ध्यान उसकी ओर जाए और सभी उसका सम्मान करें। साधू बार-बार गला साफ करने के बहाने खंखारने भी लगा। 
साधू के दुर्भाग्य से एक मेढ़े की नजर उस पर पड़ गई। मेढ़े को साधु का पहनावा और उसकी शक्ल बिल्कुल पसंद नहीं आई। मेढ़े ने साधू को मजा चखाने की सोची। 
मेढ़े की आदत होती है कि वह आक्रमण करने से पहले अपना सिर झुका लेता है। मेढ़े को सिर झुकाते देख साधू ने सोचा कि वह मेढ़ा भी उसे नमस्कार कर रहा है। साधू फूलकर कुप्पा हो गया। 

मेढ़ा सिर झुकाए साधू की तरफ झपटा तो " भीड़ का ध्यान साधू की तरफ गया। 
भीड़ जोर से चिलाई ' साधु महाराज यहाँ से उठ जाएये मेंढा आपकी और आ रहा है।'
साधु ने भीड़ कि और कोई ध्यान नहीं दिया। वह घमंड में इतराता यही सोचता रहा कि इन मूर्खों को अभी पता चल जाएगा कि वह कितना बड़ा साधू है। मेढ़ा उसे नमस्कार करता उसके चरण छूने आ रहा है। 
मेढ़ा सिर झुकाए साधू के नजदीक आया तो साधू ने उसे आशीर्वाद देने के लिए अपने हाथ ऊपर उठा लिए। इससे पहले कि साधू को सोचने का मौका मिलता, मेढ़े ने पास आकर साधू के ऐसी जोरदार टक्कर मारी कि साधू धूल में लोटता दिखाई दिया। उसकी सारी हड्डी-पसलियां एक हो गईं। साधू की दुर्दशा देख भीड़ ठहाका मार हंसने लगी। उस मूर्ख और घमण्डी साधू का घमण्ड एक क्षण में चकनाचूर हो गया। बड़ी मुश्किल से वह उठा और सिर झुकाए वहां से चला गया। 


     
6.  दिवाली कि दुआ। 


बात दिवाली के दिन की है। सुबह श्रीमती जी ने कहा 
बा कि लक्ष्मी पूजन के लिए ताजे फल लाने हैं। मैं 
गाड़ी लेकर मंडी पहुंच गया। फल वाले से करीब पांचसात तरह के फल तौलवाकर अपने थैले में रख लिए और भुगतान के लिए पर्स निकाला ही था कि बहुत धीमी मगर विनयपूर्ण आवाज सुनाई दी, 

'बाबू जी थांको थेलो गाड़ी में रख दूं?" 

पलट कर देखा तो साठ-पैंसठ साल की एक कमजोर सी वृद्धा हाथ जोड़े खड़ी नजर आई। चूंकि थैले को उठाने में मुझे कोई परेशानी नहीं थी सो मैंने कह दिया, 

'मांजी मुझे जरूरत नहीं है।' 
और फल वाले को भुगतान करने में व्यस्त हो गया। 
भुगतान कर जैसे ही पलटा तो देखा कि वह वृद्धा अभी भी थैला उठाने का आग्रह कर रही थी। तभी फल वाले ने कहा, 

'भाई साहब, उठा लेने दीजिए, इससे ज्यादा वजन तो ये वैसे भी नहीं उठा पाएगी। पांच-दस रुपए दे देना, इसकी भी दिवाली मन जाएगी।' 

मैंने हामी भर दी और वृद्धा थैले को सिर पर रखकर मेरे पीछे-पीछे चल दी। थैले को गाड़ी में रखवाकर सौ रुपए का एक नोट उसके हाथ में रखा। वह बोली, 'बाबू जी छुट्टा दो, म्हारे कने छुट्टा कोनी।' कुछ क्षण सोचकर मैंने उससे कहा, 'पूरे ही रखो, आज दिवाली है, घर पर कोई छोटा बच्चा हो तो मिठाई लेते जाना।' उसके मुर्झाए चेहरे पर मुस्कराहट और आंखों में सितारों सी जो चमक मैंने देखी वो बिना बोले ही मानों ढेरों दुआएं दे गई। मेरी वो दिवाली भी बहुत अच्छी मनी। 



          7. टेंशन कि दवा : ---




 

     प्रेरणा डायरी ( motivation dayri) -- सफ़लता कि                                                               और एक कदम। 



एक व्यापारी अवसाद से पीड़ित था। मनोचिकित्सक ने उससे कहा, ''सबसे पहले आप रेलवे स्टेशन जाएं और किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करें जिसे मदद की जरूरत हो।"' वह व्यापारी स्टेशन पर गया। उसने देखा कि एक बूढ़ी औरत प्रतीक्षालय के कोने में बैठी रो रही है। वह अपनी बेटी से मिलने के लिए बेंगलूरु आई थी, लेकिन उसने पता खो दिया था और 
उसके पास होटल में रात बिताने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे। व्यापारी ने टेलीफोन डायरेक्टरी से उसकी बेटी का पत्ता ढूंढा और महिला को टैक्सी में बैठाकर वहां ले गया। रास्ते में उसने गुलाब के कुछ फूल खरीदकर उसे भेंट किए। महिला की खुशी का ठिकाना न रहा। जैसे ही उस व्यक्ति ने उस महिला से छुट्टी पाई उसने तुरंत उस मनोचिकित्सक को फोन कर सूचित किया, अब मुझे जीवन के सच्चे आनंद का पता चल गया है। सच्चा आनंद तब मिलता है, जब बिना अपेक्षा किए किसी जरूरतमंद की मदद करते है।।