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रविवार, 25 फ़रवरी 2024

क्यों संकट बनता जा रहा है बच्चों का अकेलापन..?

प्रेरणा डायरी।



नमस्कार दोस्तों। 


हमारे देश से धीरे धीरे सयुंक्त परिवार प्रथा लगभग समाप्त होती जा रही है। महानगरों में ये लगभग अंत कि ओर है। गाँवो में कुछ निसान बचें है, यानी सयुक्त परिवार देखने को मिल जाते है। इस पारिवारिक विघटन के कई भयानक दुष् परिणाम देखने को मिल रहे है, खासकर -- हमारे छोटे छोटे बच्चो और किशोरों पर। उनका मानसिक स्वास्थ्य पंगु बनता जा रहा है। कुछ बच्चे अकेले रहते हैं लेकिन, हो सकता हैं  अकेलापन महसूस नहीं करते हैं जबकि, कुछ लोग अकेले नहीं होते हुए भी अकेलापन महसूस करते हैं। दूसरों से कट जाना, अलगअलग रहना,  दिल टूट जाना,  गुमसुम रहना, बेचैन और घबराए हुए रहना, यह सब अकेलेपन के निशान हैं। पारंपरिक रूप से तो हमारे यहां अकेलेपन को कोई बीमारी ही नहीं माना गया है जबकि यह गंभीर शारीरिक और मानसिक रोग पैदा कर सकता है, भारत में भी अकेलेपन से ग्रसित लोगों की और छात्रों की संख्या बढ़ रही है इसमें रिश्तो की कमी से जुड़ा खालीपन या परित्याग की भावनाएं जुडी होती हैं,, जैसे  उदासी, निराशा, कुंठा आदि। 
प्रेरणा डायरी (motivation dayri) के आज के लेख में, मैं इसी समस्या की और आप सब का ध्यान खैंचना चाहता हूं। 

"बचपन के दिन भुला न देना..."

 इन पंक्तियों का आशय आज के परिवेश में उलझ गया है। आज बचपन का तात्पर्य ही कहीं खो-सा गया। बच्चे समय से पहले ही बड़े हो रहे हैं। उनको अपनी समझ पर ही सबसे ज्यादा भरोसा है, बड़ों की सुनना और समझना नई पीढ़ी को भाता हीं। वे बुजुर्गो को अपने मार्ग कि बाधा समझने लगते है। इस उम्र में समायोजन ( adjustment) का पहले से ही अभाव पाया जाता है। बचपन वैसे ही परिवर्तनों का दौर है।ऐसी दशा में अपनी अपरिपक्व बुद्धि से अपने जीवन को किस दिशा में बढ़ा पाएंगे कहना मुश्किल है। माता-पिता की उपेक्षा प्रवृत्ति  बच्चों के लिए बड़ी दुःख दाई साबित हो रही है। उपर से 2 साल के कोरोना काल ने भी बच्चों को अस्त- व्यस्त कर दिया। कोरोना काल भी बच्चों के लिए अभिशाप साबित हुआ। स्कूल, खेल के मैदान, यार दोस्तों से मिलना, संगी-साथियों के साथ गली-मोहल्लों में खेलना, थोड़ी बहुत मस्ती करना, सबकुछ अचानक बंद होगया। बच्चे घर में कैद हो गए। इन दृश्यों पर गौर किया जाए तो बच्चों से जयादा परिस्थितियां व अभिभावकों की भूमिका कठघरे में दिखती हैं। चूंकि कोरोना achank  आई अप्रत्याशित समस्या थी। जिसका पूर्व में ना
 ना अनुभव था, ना अंदाज़ा था। वे paरेस्थितियां न केवल बच्चों के लिए अपितु सभी के लिए मुश्किल भरी थी। ऐसे में समाज तो क्या घर में ही लोगों की आपसी दूरियों ने जीवन में विकट एकाकीपन ला दिया। घर ही दफ़तर बन गए।  





 संवादहीनता इस एकाकीपन की समस्या को और भी गहरा कर गई। स्वभाव में चिड़चिड़ापन सबमें आ गया चाहे वो बच्चा हो या बड़ा। ऐसे मुश्किल हालात में बच्चों की परवरिश में सबसे बड़ा आघात तो माता-पिता की परिवर्तित जीवनशैली से आया। घर में सभी मोबाइल में व्यस्त हो गए।आज घर के सभी सदस्य कभी कभी एक साथ बैठ पाते है। और जब बैठते हैं तो आपसी संवाद के बजाय अपने अपने mobiel से चिपके रहते है। घर परिवार कि बात कम ही हो पाती है। बच्चों कि पड़ाई, उनके सुवास्थ, उनकी योजनाओ पर चर्चा नहीं होती।हम बच्चों को स्वस्थ व सम्पन्न मानसिक वातावरण नहीं दे पाए। 
आज का 'कल्चर' है --  एक या दो संतान  और एकाकी परिवार। जहां  एक ही बच्चा है, उसकी हालत ज्यादा खराब होती है। वो किसके साथ खेलें और किससे बात करे। माता पिता ""work from home"" में व्यस्त। बच्चों पर भी पड़ाई का दबाव। 'ऑनलाइन' माध्यम में  पड़ाई कम और 'इन्टरनेट सर्फिंग' अधिक होने लग गई। 



यह हुआ कि बच्चे का ध्यान पढ़ाई से हटकर अन्य क्षेत्रों में चला गया, चाहे फिर वो उसके स्तर के अनुरूप हो या नहीं। बच्चों के मानसिक, शारीरिक व बौद्धिक विकास को आघात लगा। यह विकास कुंठित हो गया। व्यवहार में हठ और उग्रता भी आ गई। बच्चों की ग्राह्य शक्ति अपरिमित है। माता-पिता की हर बात का, अपने आस-पास के प्रत्येक घटनाक्रम का ध्यान से वीक्षण करते हैं। संवाद की कमी के बीच उनकी अपरिपक्व समझ इसे कैसे आत्मसात करेगी, यही आज चिन्ता का विषय है। वे तो जैसा देखेंगे, सुनेंगे, वैसा ही सीखेंगे और करेंगे। आज सोशल मीडिया पर तो जितना 'असामाजिक' वातावरण है उसका प्रभाव इस पीढ़ी पर साफ तौर पर देखा जा सकता है। अपशब्दों वाली भाषा के साथ ही सबकुछ आज इस मंच पर उपलब्ध हैं और बच्चों की आसान पहुंच में भी हैं। 
आज 5जी के युग में मासूम बचपन सिर्फ मोबाइल, लैपटॉप आदि उपकरणों तक सिमटता जा रहा है। उन्हें ना तो ये मतलब है कि घर में कौन आ रहा है, कौन जा रहा है। इन उपकरणों पर निर्भरता ऐसी हो गई है कि सामान्य जानकारी अथवा कोई आसान गणना सब बच्चे तत्काल मोबाइल,लैपटॉप के सहारे खोजते हैं। उनके मानसिक विकास के अवसर अवरुद्ध हो गए। 
संयुक्त परिवार में भी बड़ों के प्रति श्रद्धा का अचानक लोप होने लगा। इस कारण घर का वातावरण प्रभावित होने लगा। बच्चे जैसे 'टीचर' से बात करते हैं, वैसी ही रूखी भाषा में घर के सदस्यों से भी बात करने लगे। बड़ों के आदेश की पालना तीसरी पीढ़ी में समाप्त हो गई। बच्चों से कोई बात बुजुर्ग मनवा नहीं पाते। दोनों पीढ़ियों की दिशा भिन्न है। अध्यात्म का धरातल चर्चा से ही बाहर हो गया। घर में जीवन एकपक्षीय हो गया है। 

अधिकांश पढ़े-लिखे एकल परिवारों में माता-पिता दोनों कामकाजी हैं। बच्चे को समय नहीं दे पाना बड़ी समस्या है। समय रहते सावधान नहीं हुए तो परिणाम भयावह हो सकते हैं। मोबाइल के अत्यधिक उपयोग से शारीरिक व मानसिक विकार बढ़ते जा रहे हैं। स्वयं मोबाइल का उपयोग सीमित करके उनके साथ संवाद स्थापित करना होगा। दैनन्दिन गतिविधियों, घरेलू कार्यों, रिश्तेदार व संबंधियों से मेल-मिलाप में उनको साथ रखना होगा। पढ़ाई कार्यों में भी उनका सहयोग करना होगा।

 अकेलेपन के प्रकार --


1. भावनात्मक अकेलापन

जब कोई व्यक्ति दूसरों के साथ घनिष्ठ भावनात्मक संबंध या अंतरंगता और निकटता की कमी महसूस करता है उसे भावनात्मक अकेलेपन में गिना जाता है।

2. सामाजिक अकेलापन

सामाजिक अकेलापन तब होता है जब कोई व्यक्ति सामाजिक नेटवर्क या सामाजिक कनेक्शन की कमी महसूस करता है। सामाजिक जुड़ाव की कमी महसूस करता है।

3. दीर्घकालिक अकेलापन

 दीर्घकालिक अकेलापन ऐसी स्थिति है जिसमें कोई व्यक्ति या छात्र लंबे समय तक संबंधों में अलगाव के कारण दूर रहता है उसके अंदर अकेलेपन की भावना पैदा हो जाती है।

4. आध्यात्मिक अकेलापन

इस प्रकार का अकेलापन सामाजिक संबंधों में कमी के कारण उत्पन्न नहीं होता है लेकिन इसमें व्यक्ति के जीवन में ऐसी भावनाएं पैदा हो जाती हैं जिससे वह यह सोचने लगता है कि जीवन का कोई अर्थ नहीं है। उसे जीवन की सार्थकता ही समाप्त नजर आने लगती है इस तरह का अकेलापन उत्पन्न होता है वह आध्यात्मिक अकेलेपन में गिना जाता है।

 अकेलेपन पर आधारित तीन अहम् नजरिये या दृष्टिकोण --

1. समाजशास्त्रीय दृस्टिकोण --
 इस दृष्टिकोण को मानने वाले विद्वानों का कहना है कि अकेलापन एक सामाजिक समस्या है जो व्यक्ति के समानसिक स्वास्थ्य पर असर डालता है एवं सामाजिक संबंध को कमजोर बनाता है। यह किसी व्यक्ति एवं छात्र के सामाजिक संबंधों में कमी का एहसास कराता है।

2. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण --
 मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण का मानना है कि अकेलापन व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर व्यापक असर डालता है। उसके जीवन में विभिन्न तरह की समस्याओं का कारण बनता है इस मानसिक स्वास्थ्य के सवालों को समझने में मदद मिलती है।

3. अस्तित्ववादी दृष्टिकोण --

 अस्तित्व वादी दृष्टिकोण में कहा जाता है कि हर कोई अंततः अकेला है और कोई भी आपके विचार और भावनाओं को महसूस नहीं कर सकता ऐसे में लोग अपने अस्तित्व के लिए अलग-अलग रहना स्वीकार करते हैं। अस्तित्व वादी अकेलेपन को एक उत्पादक और कभी रचनात्मक स्थिति के रूप में भी देखते हैं।

 अकेलेपन की पहचान ऐसे करें --

1. खुद पर संदेह होना और योग्यता महसूस करना।
2. हमेशा चिंता और बेचैनी बने रहना।
3. अनिद्रा की समस्या होना।
4. दोस्तों और परिवार के लोगों के बीच रहते हुए भी खुद को अकेला महसूस करना।  यह एक प्रमुख लक्षण है।
5. व्यक्ति या छात्र अकेला रहना पसंद करता है।  उसे अकेलापन ही भाने लग जाता है।



E-mail - lalkedar04@gmail.com
वेबसाइट- prernadayari.blogspot.com
ब्लॉग - प्रेरणा डायरी।