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शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

एक ओजस्वी वाणी.... स्वामी विवेकानंद। ( motivational quotes of suwami vivekanand for students & youth )

 26 june 2023

Hindaun, Rajasthan, India🇮🇳


भारत के आध्यात्मिक गुरु का दर्जा प्राप्त स्वामी विवेकानंद जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि थे तो, नटखट भी। उनके घर का वातावरण धार्मिक था रोज नियम पूर्वक पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, भी होते थे। नरेन्द्र के जीवन पर बचपन के इन संस्कारों का गहरा प्रभाव पड़ा । इसलिए आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द वेद , शास्त्रों एवं उपनिषदों के महान ज्ञाता और विद्वान बने । उन्होंने वेद दर्शन का पूरी दुनिया में प्रचार -प्रसार किया। 19वीं शताब्दी के महान समाज सुधारक, और हिन्दू उद्धारक बने। उन्हें "तूफानी हिंदू" नाम से भी जाता है । उनकी शिक्षा, उनका दर्शन, छात्रों के लिए एक अनमोल खजाने कि भांति है। उनके ओजस्वी प्रेरणादायी विचार ( motivational quotes/thoughts) युवाओं और छात्रों के लिए एक अनमोल धरोहर हैं । देश के हजारों -हजारों युवाओं ने उनके विचारों से प्रेरणा ( Motivation ) लेकर अपने जीवन को सफ़ल बनाया और अपने उदेश्यो को पूरा किया । 

हमारे देश मै अनेक महापुरुषो का उदय हुआ । जिन्होंने अपना जीवन देश और समाज के उत्पान एवं विकास में लगा दीया | लगभग हर महापुरुष और युगपुरुष ने ना केवल खुद शिक्षा के महत्व को समझा, बल्कि समाज के अन्य तबको तक भी इसे पहुँचाया। जनसाधारण तक पहुँचाया। इनमे सुवामी जी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है ।इनके द्वारा  दिये प्रेरणात्मक संदेश (motivational thoughts) chatra और युवाओं के लिए बढ़े ही ऊर्जावान और ओजस्वी  है। स्वम स्वामी जी की भाति। विवेकानंद को ऊर्जा और ओज का जीता-जागता पूँज माना जाता था। जहाँ भी उनके कदम पड़ते चारों तरफ ऊर्जा और उत्साह का संचरण हो जाया करता था।। कहते हैं उनके मुख पर चन्द्रमा जैसी शीतलता दिखाई देती थी। तो दूसरी ओर सूर्य जैसा तेज भी नज़र आता था। उनके विचार हमारी युवा पीढ़ी के लिए अमृत के समान है। उनकी बाते जोश भरती है।उत्साह  जगाती है। मै तो यही कहूँगा कि " उनके विचार और संदेश( thought & quotes) रुके हुए रक्त मे भी ऊर्जा का संचरण करने मे समर्थ है। "अपने एक वाख्याँ मे उन्होने युवाओं को लगभग ललकारते हुए कहा---

कमजोरी मृत्यु के समान है

उठो, जागो 

और तब तक मत रूको, जब तक लक्ष्य प्राप्त ना हो जाए ।। 


दोस्तों कितनी ऊर्जा है, स्वामी जी कि इन पंक्तियों मे। आप ही बताये....? ऐसी ओजस्वी बाते पढ़कर किसका जुनून नहीं जागेगा...? "रुके हुऐ रक्त मे संचरण वाली बात मैने इसीलिए तो कही थी "। 

दोस्तों स्वामी जी एक  विलक्षण विचारक, प्रखर वक्ता, समाजसुधारक, पश्चिम में हिन्दू संस्कृति के प्रचारक थे । अग्र दूत थे। उनके ऐसे महान विचारों  को "प्रेरणा डायरी ( motivation dayri) कि आज कि पोस्ट मे पढ़ेगे। उनके विचारों को पढ़ना छात्र- छत्राओ और अन्य के लिए भी शौभाग्य कि बात है। 


     इसे जरूर पढ़े --  prernadayari.blogspot.com


          एक ओजस्वी वाणी....स्वामी विवेकानंद।। 


जन्म - 12 january 1863। 

मृत्यु - 4 जुलाई 1902। 

वास्तविक नाम - नरेंद्र दत्त। 

शिकागो विश्व धर्म सहसभा - 1893

संगठन - राम कृष्ण मिशन। 

गुरु - राम कृष्ण परमहंस। 

दर्शन - आधुनिक वेद्धांत। 

पिता - विश्व नाथ दत्त। 

माता- भुवनेश्वरी देवी। 




स्वामी विवेकानंद जी का पावन जीवन :--

भारत के औद्योगिक नगर कलकत्ता में वकलात करने वाले विश्वनाथ दत्त के परिवार में कोई कमी नहीं थी। धन-धान्य, सुख-सुविधा से भरपूर यह परिवार कई सगे-सम्बन्धियों एवं निराश्रितों का पालनहार भी था।  

विश्वनाथ दत्त की पत्नी भुवनेश्वरी देवी भक्त प्रकृति की महिला थीं, परन्तु पुत्र की कामना ने उन्हें बेचैन कर दिया था। पुत्र प्राप्ति के लिए वे कठोर दिनचर्या व्यतीत करती थीं। बहुत से कठोर व्रत रखती थीं। एक बार उन्होंने काशी में रहने वाली एक रिश्तेदार महिला को अपने मन की व्यथा पत्र में लिखते हुए प्रार्थना की कि वह उनकी ओर से काशीनाथ वीरेश्वर से एक पुत्र की कामना करें। 

उनका यह विश्वास रंग लाया और एक रात स्वप्न में एक दिव्य प्रकाश उनके तन में समा गया। उन्हें महसूस हुआ कि वीरेश्वर ने उनकी प्रार्थना सुन ली। वे गर्भवती हो गई। मकर संक्रांति 12 जनवरी सन् 1863 की प्रातः वेला में भगवान सूर्य के उदय के साथ उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। यह पुत्र उन्हें वीरेश्वर के अनुग्रह से प्राप्त हुआ था, इसीलिए उसका नाम वीरेश्वर रखा गया। घर में उसे सब बिले कहते थे। विद्यालय जीवन में उसका नाम नरेन्द्रनाथ रखा गया, जिन्हें आज सारा संसार स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानता है। 

बालक नरेन्द्र में असाधारण मेधा, तेजस्विता, साहस, मानव प्रीति व खेलकूद के प्रति जबरदस्त आकर्षण था। साथ ही साथ उसकी आध्यात्मिक भूख भी काफी बड़ी हुई थी। 'ध्यान-ध्यान' खेलते समय एक बार नरेन्द्र समाधिस्थ हो गया। सामने एक सर्प फन फैलाकर आ बैठा। परन्तु इसका जरा भी भान नहीं रहा। भय के कारण बहुत से व्यक्ति उसके चारों ओर खड़े हो गए। तब भी उसकी एकाग्रता नहीं टूटी। घरवालों के काफी प्रयास करने के बाद वह प्रकृतिस्थ हो सका। 

उम्र बढ़ने के साथ-साथ नरेन्द्र स्कूल एवं कॉलेज की सभी विधाओं में निपुण होकर उच्चकोटि का तार्किक बना। वह छात्र एवं शिक्षक समुदाय में मणि की तरह चमका। सन् 1879 में मेट्रोपोलिटन स्कूल में प्रथम श्रेणी से एंट्रेंस परीक्षा उत्तीर्ण करके उसने कलकत्ता स्थित प्रेसिडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया। सन् 1881 में एफ.ए. तथा सन् 1883 में उन्होंने बी.ए. की डिग्री हासिल की। नरेन्द्रनाथ में विद्यानुराग प्रबल था तथा पढ़ने की परिधि स्कूल एवं कॉलेज के पाठ्यक्रम से कहीं अधिक थी। 

छात्रावस्था में ही उन्होंने दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर के विचारों की समालोचना करते हुए उनको एक पत्र लिखा। इस पत्र के जवाब में स्पेन्सर महाशय ने नरेन्द्रनाथ की प्रशंसा करते हुए अपनी पुस्तक के आगामी संस्करणों में सुधार का वचन दिया। 


          "प्रेरणादायक डायरी -- उम्मीदों कि उडान"


बहुमुखी प्रतिभा के धनी विवेकानंद जी :--

नरेन्द्र के विद्यानुराग से प्रभावित होकर उनके कॉलेज के प्राध्यापक विलियम हेस्टी ने कहा था, '"नरेन्द्रनाथ, सचमुच ही जीनियस है, मैं बहुत स्थानों पर घूमा हूँ, पर इसके जैसी बुद्धि और बहुमुखी प्रतिभा मैंने कहीं नहीं देखी ।'"

विद्यार्थी जीवन में नरेन्द्रनाथ की चाह ऐसे व्यक्ति से भेंट करने की थी, जो दावे से कह सके कि उसने ईश्वर को देखा है। इस जिज्ञासा का शमन करने के लिए वे कई ऋषियों, साधु-संन्यासियों के पास गए, लेकिन शंका का कोई समाधान नहीं हुआ। अंत में उन्होंने प्राध्यापक हेस्टी के द्वारा सुझाए गए मार्ग को अपनाकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास जाना उचित समझा।

 श्री रामकृष्ण परमहंस  के चरणों में -

 युवक नरेंद्र नाथ ने दर्शन संगीत और व्यायाम में अपनी पहचान बना ली थी। महाविद्यालय के बाद उन्होंने पश्चात विचारधारा का अध्ययन किया। स्वामी विवेकानंद के चचेरे भाई रामचंद्र दत्त ने उन्हें दक्षिणेश्वर में रहने वाली एक महान आत्मा श्री रामकृष्ण परमहंस से भेद करने के लिए उत्साहित किया। और सन 1881 में इन दो महान आत्माओं की ऐतिहासिक भेंट हुई। जब पहली बार विवेकानंद की परमहंस से बात हुई तो उन्होंने उनसे सवाल किया -- " क्या आपने ईश्वर को देखा है..? परमहंस ने उत्तर दिया  

ईस्वर् को देखने की इच्छा : ---

नवम्बर सन् 1881 में श्री रामकृष्ण परमहंस से उनकी प्रथम भेंट कलकत्ता निवासी सुरेन्द्र मित्रा के घर पर हुई। रामकृष्ण नरेन्द्र से बहुत प्रभावित हुए तथा नरेन्द्र को दक्षिणेश्वर आने का निमन्त्रण दिया। उसके बाद नरेन्द्र अपने तीन-चार साथियों के साथ दक्षिणेश्वर गए। उन्हें देखते ही रामकृष्ण परमहंस बोले उठे, "'कितनी देर कर दी। अब तक कहां था तू ? तू इतने दिन कैसे जीवित रह पाया मेरे बिना ?" नरेन्द्र को इन बातों का अर्थ समझ में नहीं आया। उन्होंने श्री रामकृष्ण से पूछा कि क्या आपने भगवान को देखा है? रामकृष्ण ने उत्तर दिया, 'देखा ही नहीं, जैसे मैं तुमसे बात कर रहा हूं, उसी तरह उनसे बात हूं। नरेन्द्र की वर्षों की मुराद पूरी हुई। वे धीरे धीरे रामकृष्ण के सम्पर्क में अपनी आध्यात्मिक भूख को शांत करने लगे। रामकृष्ण परमहंस की कृपा से उन्होंने ईश्वरीय बोध की परम अनुभूति 'निर्विकल्प समाधि' भी पायी। उन्होंने गुरुदेव से कहा कि वे इसी अवस्था में रहना चाहते हैं। अचानक ही पिता के स्वर्गवास के कारण वे घोर आर्थिक कठिनाई में फंस गये। तंग आकर उन्होंने रामकृष्ण परमहंस से कहा कि उनके लिए मां काली से वरदान मांगें। उनके बहुत पीछे पड़ने पर श्री रामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ से कहा कि वे स्वयं जाकर मां से वरदान मांगे। नरेन्द्र हिम्मत करके मन्दिर में काली-मां के सामने गए लेकिन धन-धान्यादि मांगने के स्थान पर भक्ति और वैराग्य की मांग कर बैठे। ऐसा तीन बार हुआ। आखिर रामकृष्ण ने उनसे कहा कि तू निश्चिंत हो जा, मोटे कपड़े और खाने की तेरे परिवार में भी कमी नहीं होगी। 



 अमेरिका यात्रा : --

रामकृष्ण परमहंस की महासमाधि के बाद नरेन्द्र ने अपने गुरु भाइयों को एकत्र करके '"रामकृष्ण मिशन"' की स्थापना की। उसके बाद वह निकल पड़े 'मां' का कार्य करने के लिए। ढाई वर्ष के परिव्राजक जीवन में उन्होंने भारत के लोगों को पराधीनता, धर्मान्धता, अशिक्षा, अपसंस्कृति, पिछड़ा पन के साथ-साथ जातीय हिंसा, द्वेष, वैमनस्य आदि में डूबे हुए देखा। उन्होंने पाया कि इन सब बीमारियों की जड़ में हिन्दू दर्शन का लोप हो जाना है। कन्याकुमारी में दिशा तय हो जाने के बाद दिनांक 11 सितम्बर 1893 के दिन उन्होंने शिकागो में होने वाले विश्व धर्म सम्मेलन में सिंह की तरह दहाड़ करके हिन्दू धर्म की गिरती ध्वजा को पुनः प्रतिष्ठापित किया अपने 39 वर्ष के जीवनकाल में उन्होंने पूरे विश्व में हिन्दू की विजय का डंका बजाया। 


स्मरण शक्ति और लगन :--- 

स्मरण शक्ति और लगन परीक्षा को बहुत दिन नहीं हुए थे। एक महीना भी नहीं बचा था। इंग्लैण्ड के विशाल इतिहास को नरेन्द्र ने एक बार भी नहीं बढ़ा था। परीक्षा में उत्तीर्ण होने का कोई विशेष प्रयत्न उनके सहपाठीगण नहीं करते थे। अपने मित्रों के साथ वे चार बागान में पढ़ने के लिए जाते थे, लेकिन उनका अधिक समय बातचीत या गानेबजाने में ही बीत जाता था। नरेन्द्र अपने मामा के जिस घर में रहते थे, उस घर में एक चोर कोठरी भी थी। साथ लगे बड़े कमरे से उसमें प्रवेश का केवल एक दरवाजा था, जो इतना छोटा था कि उसमें से पेट के बल होकर घुसना पड़ता था। उस दरवाजे के अतिरिक्त कमरे में एक छोटीसी खिड़की भी थी। वे वहाँ बैठकर अध्ययन करने लगे। 

उन्हीं दिनों नरेन्द्र के एक मित्र उनके घर पर आए और नरेन-नरेन कहकर आवाज लगाने लगे। नरेन्द्र ने उत्तर दिया पर मित्र को वे कहीं दिखाई नहीं दिए। उन्होंने फिर आवाज लगाई तो नरेन्द्र ने जोर से उत्तर दिया, '"इस चोर कोठरी के भीतर हूँ।'" मित्र कौतूहल से उस कमरे में आए तो पता चला कि नरेन्द्र दो दिन से उसी कोठरी में बैठकर इंग्लैण्ड का इतिहास पढ़ रहे हैं नरेन्द्र ने संकल्प ले लिया था कि एक ही बैठक में विशाल इतिहास पुस्तक को पूरी पढ़ कर कोठरी से बाहर निकलेंगे। अपने संकल्प के अनुसार वे तीन दिन में इंग्लैण्ड का पूरा इतिहास पढ़कर ही कोठरी से निकले। 



विवेकानंद ने कहा था :---- 

स्वामी विवेकानन्द ने समूची दुनिया में आध्यात्मवाद के महत्व को स्थापित किया। उन्होंने कहा था "'जब मनुष्य अपनी प्रकृति पर अधिकार करके आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है तो उसे ईश्वर की सत्ता का आभास हो जाता है।'"  वे कहते थे, 'धर्म न तो पुस्तकों में है, न बौद्धिक विकास और तर्क में । तर्क, सिद्धान्त, पुस्तकें और धार्मिक क्रियाएं केवल धर्म की सहायक हैं। धर्म केवल आत्मज्ञान में निहित है।'  धर्म को आत्मज्ञान मानने के कारण ही वे विश्व में सर्वधर्म समभाव और एकता के सिद्धान्त को कायम कर सके। स्वामी विवेकानन्द चरित्र के निर्माण में संचित कर्म, प्रारब्ध तथा वर्तमान कर्म तीन का प्रभाव मानते थे। उनका अटल विश्वास था कि जितने ही अच्छे संस्कार तथा प्रवृत्तियां हम ग्रहण करेंगे, उनका सद्भाव उतना ही स्थायी होगा। अतः हमारा यही प्रयास होना चाहिए कि हम सद्वृत्तियों और गुणों को ग्रहण करें। 

बुरी प्रवृत्तियों से लड़ने का उपाय यह नहीं है कि हम उनको दबाने की चेष्टा करें, उनसे भागें या उन्हें किसी नशे के द्वारा भुला दें, वरन् उन्हें अच्छी दिशा में मोड़ दें उनके स्थान पर अच्छी प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठित करें।इन सबके लिए व्यक्ति को संघर्ष करना होगा और अपने में यह विश्वास जगाना होगा कि मैं स्वंय अपने चरित्र का निर्माता हूं। स्वामी विवेकानन्द ने बड़े प्रभावशाली शब्दों में  कहा है, '"बाहर दिखाई देने वाली प्रत्येक बुराई का कारण हमारे अन्दर है। किसी दैवी शक्ति को इसके लिए दोष मत दो। न तो निराश हो और न दुविधा में पड़ो। यह मत सोचो कि हम ऐसे स्थान पर खड़े हैं, जहां से हम तब तक नहीं हट सकते जब तक कोई और हमारी सहायता के लिए हाथ न बढ़ाए।'"

 


महान चरित्र वाले व्यक्ति का लक्षण यही है कि वह आत्मविश्वास से अपने बन्धनों तथा अपनी दुर्बलताओं का निराकरण करने के लिए संघर्ष करे। यही दृष्टिकोण श्रेष्ठ मार्ग तथा हमारे साधना पथ का पाथेय है । स्वामी विवेकानन्द की दृढ़ धारणा थी कि सहायता बाहर से नहीं आती, हमारी अन्तरात्मा से ही आती है। 

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, "'यदि हम किसी व्यक्ति के चरित्र का वास्तव में आकलन करना चाहते हैं तो उसके महान् कार्यों को नहीं देखना चाहिए। मनुष्य को उसके साधारण कामों को करते हुए देखो।'"


2 . ज्ञान का प्रकाश सभी अधेरों को खत्म कर देता है।। 


3 . अपने जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित करो और अपने पूरे शरीर को उस लक्ष्य से भरो बाकि के दूसरे विचारों को अपनी जिन्दगी से निकाल हो । यही सफलता कि कुंजी है। 


4. एक समय में केवल एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उस में डाल हो । बाकी सब कुछ भूल जाओ।। 


5. यदि जीन्दगी में आपके सामने समस्याएँ नहीं आ रही है। तो आप    तय मानकर चलिए कि आप गलत मार्ग पर चल रहे है। । 


6. एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो, उसी के बारे में सोचो, उसी के सपने देखो, उसी को जियो), अपने मतिष्क, मांसपेशियों, नसों, और शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो। बाकि सब विचारों को किनारे रख दो । यही सफल होने का सबसे उत्तम उपाय है। 


7 . मन कि एकाग्रता री समग्र ज्ञान है। ।। 


8.बल ही जीवन है जबकि दुर्बलता मृत्यु ।। 


9. खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है ।। 


10. वह नास्तिक है, जो अपने आप में विश्वास नहीं रखता ।। 

 

11. हम जो बोते है, वो काटते है। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता    है। 


12.  सम्भव की सीमा जानने का एक ही तरीका है । असम्भव से भी आगे निकल जाना।। 


13 . हर काम को तीन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता उपहास, विरोध, स्वीकृति ।। 


14. जब  तक आपको खुद पर भरोसा नहीं होगा, तब तक आप ईश्वर पर विश्वास नहीं कर सकते।। 


15. दिन रात अपने मस्तिष्क को, उच्चकोटी के विचारों से        भरो  जो फल प्राप्त होगा निश्चित ही अनोखा होगा ।। 


16. जब तक करोड़ो लोग भूखे व अज्ञानी रहगे, में उस प्रत्येक व्यक्ति को विश्वासघाती  मानूँगा जो उनकी कीमत पर शिक्षित हुआ है। लेकिन ओर   बिल्कुल भी ध्यान नहीं देता। 


17. केवल उन्हीं का जीवन, जीवन है, जो दूसरों के लिए जीते हैं। अन्य सब तो जीवित होने से अधिक मृत है । 

 

18. जो कुछ भी तुमको कमजोर बनाता है शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक रूप से उसे जहर कि तरह त्याग दो।। 


19 . कमजोरी मृत्यु के समान है, आज ही इसे त्यागो । और उत्साह के साथ जीवन जीओ। 


 21. अनुभव ही आपका सर्वोत्तम शिक्षक है । जब तक जीवित हो अनुभव प्राप्त करते रहो और सीखते रहो।। 


22.  ऊर्जावान मनुष्य एक साल में इतना कर देते हैं, जितना भीड़ सौ  साल में भी नहीं कर सकती l 


23. अपने जीवन में जोख़िम ले, जीत गये तो नेतृत्व करेगे  और यदि हारे तो दुसरों का मार्ग दर्शन करोगे । 


 24. हम खुद में बहुत सी कमियों के बाद भी स्वम से प्रेम करते है, तो दूसरों में जरा सी कमी के कारण हम उनसे घृणा कैसे कर सकते हैं। 


 24 . जैसी बातों पर विश्वास करोगे वैसे ही बनते जाओगे | 


 25 . यदि तुमने स्वम पर नियन्त्रण करना सीख लिया तो उसी दिन से  आप दुनिया के हर क्षेत्र में मास्टर समझे जाओगे । 


  26. भरोसा भगवान पर है  तो जो लिखा है तकदीर में व वही पाओगे, पर भरोसा खुद पर है तो भगवान वही लिखेगा , जो तुम चाहोगे  ।। 

  

28. धार्मिक शिक्षा पुस्तकों द्वारा न देकर, अaचरणो व संस्कारों दुवारा देनी चाहिए।।